सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा [The Truth will set you Free]
यूहन्ना 8:31-36
[31]तब यीशु ने उन यहूदियों से जिन्होंने उस पर विश्वास किया था, कहा, “ यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे। To the Jews who had believed him, Jesus said, “If you hold to my teaching, you are really my disciples.
[32]तुम सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा।” Then you will know the truth, and the truth will set you free.”
[33]उन्होंने उसको उत्तर दिया, “हम तो अब्राहम के वंश से हैं, और कभी किसी के दास नहीं हुए। फिर तू कैसे कहता है कि तुम स्वतंत्र हो जाओगे?” They answered him, “We are Abraham’s descendants and have never been slaves of anyone. How can you say that we shall be set free?
[34]यीशु ने उनको उत्तर दिया, मैं तुम से सच सच कहता हूं कि जो कोई पाप करता है, वह पाप का दास है। Jesus replied, “Very truly I tell you, everyone who sins is a slave to sin.
[35] दास सदा घर में नहीं रहता: पुत्र सदा रहता है। Now a slave has no permanent place in the family, but a son belongs to it forever.
[36] इसलिये यदि पुत्र तुम्हें स्वतंत्र करेगा, तो सचमुच तुम स्वतंत्र हो जाओगे। So if the Son sets you free, you will be free indeed.
1.यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे [Jn 8:31] –
वचन [Word] -
पुराना नियम के समय में इस्राइलियों के लिए परमेश्वर का वचन केवल लिखित या कहा हुआ वचन नहीं वरन् क्रियाशील वचन था। इसमें परमेश्वर का सामर्थ्य था जिससे कि जब परमेश्वर अपनी इच्छा को अभिव्यक्त करता था तो वह इच्छा पूरी होती थी जब परमेश्वर ने कहा कि उजियाला हो तो उजियाला हो गया (उत्प.1:3)।
परमेश्वर के क्रियाशील वचन के द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति हुई (उत्प.1:3,6,9,14,20,24,26; इब्रा.11:3, 2पत.3:5)।
परमेश्वर का वचन व्यर्थ नहीं होता। यह जो कुछ कहता है वह अवश्य ही पूरा होता है (यशा.55:10-11)।
परमेश्वर के वचन में ऐसी शक्ति थी ऐसा जीवन था कि लोग प्रायः इसे एक ऐसे व्यक्ति के समान समझते थे जो परमेश्वर का जीवित प्रतिनिधि या सन्देशवाहक था (भजन33:6, 107:20, 147:15,18)।
परमेश्वर का वचन = यीशु –
नया नियम में यीशु को वचन कहा गया है (यूनानी-Logos; 1यूह.1-3)। प्रथम शताब्दी के यूनानी दार्शनिकों ने लॉगोस (Logos) के सन्दर्भ को सृष्टि के कारण का सिद्धांत माना गया है।
परमेश्वर का वचन परमेश्वर का जीवित और क्रियाशील प्रतिनिधि है। यह सृष्टि के पहिले से है और यह जैसा साधन था जिसके द्वारा परमेश्वर ने सृष्टि की रचना की। नया नियम बतलाता है कि यह वचन व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण है, यह वस्तु नहीं परन्तु जीवित व्यक्ति के समान है। वह न केवल परमेश्वर के साथ है परन्तु स्वयं परमेश्वर है। यह वचन यीशु मसीह है जो मनुष्य बना। वह जीवित वचन है अर्थात् परमेश्वर की जीवित अभिव्यक्ति है। उसका वचन और उसके कार्य परमेश्वर के वचन और कार्य है (यूह.1:1-4,14, उत्प.1:1-3, कुलु.1:15-17, इब्रा.1:1-3, प्रका.19:13,16)।
लिखित और कहा हुआ वचन –
इसलिए कि परमेश्वर ने मनुष्य जाति से यीशु मसीह के द्वारा बातें कहीं, यीशु मसीह वचन है। इसी प्रकार क्योंकि उसने पवित्रशास्त्र के द्वारा हमसे बातें कहीं इसलिए पवित्रशास्त्र वचन है (भजन119:105, मत्ती15:6, यूह.10:35)। फिर भी जब बाइबल के लेखक परमेश्वर के लिखित वचन के बारे में बोलते हैं तो उनका अर्थ बाइबल जैसी एक पुस्तक से नहीं परन्तु परमेश्वर के ऐसे वचन से होता है जिसकी घोषणा और जिसका प्रचार परमेश्वर के प्रतिनिधि करते हैं।
उदाहरणतः परमेश्वर की ओर से बोलनेवाले लोग नबी कहलाते थे और उनकी घोषणा परमेश्वर के लोगों के लिए अधिकार सहित परमेश्वर का वचन था (यशा.1:2-4,18; यिर्म.23:22; यहेज.1:3; होशे 4:1; योएल1:1; आमोस 1:3; इब्रा.1:1-2)
इसी प्रकार नया नियम के प्रेरितों द्वारा सुसमाचार प्रचार परमेश्वर के वचन की घोषणा थी (प्रेरि.4:31,13:44; इफि.1:13, कुलु.1:5-6; 1पत.1:23,25)
बाद के मसीही सिध्दांतों के निर्देश परमेश्वर के वचन की शिक्षाएं थी (प्रेरि.18:11, कुलु.3:16, 1थिस्स.2:13; इब्रा.13:7)।
कहा हुआ वचन लिखित वचन भी बन गया और यीशु के व्यक्तिगत वचन के समान यह भी जीवित और क्रियाशील है। यह आज भी जीवित और क्रियाशील है और वचन को सुनने तथा पढ़नेवालों के मनों में और जीवनों में परमेश्वर का कार्य करता है (इब्रा.4:12)।ष
शिष्य [Disciple] –
इस पृथ्वी पर यीशु के जीवन के समय बहुत से लोग अपने आप को उसके चेले समझते थे। वे उसके पीछे चलते थे और उसकी शिक्षा को वैसे ही सुनते थे जैसे विधार्थी अपने शिक्षक की सुनते हैं। यद्यपि इनमें से बहुत से लोगों ने यीशु को मसीह समझा। परन्तु बहुत से लोगों ने उसे एक राजनैतिक नेता समझते थे जो यहूदियों को रोमी लोगों को के हाथ से छुड़ा सकता और स्वर्णयुग देनेवाला था(यूह.6:14-1560-64)। जब उन्होंने देखा कि यीशु इस प्रकार का अगुवा नहीं हैं तो उन्होंने उसके पीछे चलना छोड़ दिया (यूह.6:66-68)।
फिर भी उस समय यीशु के सच्चे वह विश्वासी सैकड़ों चेले थे (लूका6:17,20)। इनमें से यीशु ने 12 को चुनकर उन्हें अपना प्रेरित बनाया (लूका6:13)। ये 12 चेले यीशु के विशेष शिष्य थे इसलिए ये उसके मुख्य 12 शिष्य कहलाए (मत्ती 16:13,20:17,24:3,26:17)। यीशु के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बाद में मसीही कहलाए। सभी अनुयाई उसके चेले कहलाने लगे (प्रेरि.1:15,6:1,9:1) और वे बाद में मसीही कहलाए (प्रेरि.11:26,1पत.4:16)।
सच्चे चेले के लक्षण –
यीशु के चेले को केवल सीखना ही पर्याप्त नहीं है उन्हें अपनी शिक्षा को व्यावहारिक रूप देना चाहिए और यदि वे यीशु के सच्चे भक्त बनना चाहते हैं तो उन्हें निरन्तर उसकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए (यूह.8:31)। उन्हें यीशु के शिष्य होने का दिखाई देनेवाला प्रमाण होना चाहिए। वे आपस में सच्चे प्रेम का व्यवहार करके और अपने जीवन में आत्मिक फलों को उत्पन्न करके ऐसा प्रभु दे सकते हैं (यूह.13:13-15,35; 15:8)।
यीशु के चेलों को उसका सुसमाचार सब स्थान के सब लोगों तक फैलाना चाहिए जिससे कि और भी अधिक शिष्य बनें (मत्ती 28:19-20)।
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2.तुम सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा।” [Jn8:32]
सत्य (Truth) –
बाइबल में ‘सत्य' शब्द का प्रयोग प्रायः ईमानदार,सच्चा और विश्वासयोग्य के लिए किया गया है (उत्प.24:49,47:29,भ.सं.57:10, प्रका.22:6)।
परमेश्वर सत्य है -
सत्य परमेश्वर का स्वभाव है। वह मूल सत्य है अर्थात् वह प्रत्येक वस्तु का मूल स्त्रोत है (यूह.1:3-4,14; 8:26, रोमियों1:25)। परमेश्वर ने देहधारण की; वह यीशु मसीह बना। अतः यीशु मनुष्य की देह में सत्य है (यूह.14:6, इफि.4:21,प्रका.3:7)। यीशु ही में परमेश्वर का सत्य सिध्दता से अभिव्यक्त किया गया है और उसी के द्वारा परमेश्वर की प्रतिज्ञाएं सिध्दता से पूरी होती है (यूह.1:17, 2कुरि.1:20, प्रका.3:14)।
यीशु ने बार बार सत्य की साक्षी दी और जो उसे जानने के लिए आते हैं वे सत्य को जानने के लिए आते हैं। उसी के द्वारा वे पाप के बन्धन से स्वतन्त्र होते हैं, और सच्चे परमेश्वर के जीवित सम्बन्ध में आते हैं और परमेश्वर का पवित्र आत्मा उनमें निवास करता है (यूह.8:32,14:17,16:13,17:3, 2यूह.1:2)। यीशु द्वारा कहा गया सत्य लोगों को बचाता है क्योंकि यह यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर की पूर्ण उध्दार की क्रिया का प्रतिनिधित्व करता है। यीशु का जीवन और उसकी शिक्षा परमेश्वर के सत्य के प्रकटीकरण और उसके पूरा होने की ओर संकेत करती थी (यूह 1:17,8:32,45-46; 17:17,19; 18:37)। इससे स्वाभाविक रूप से ‘सत्य' का अर्थ यह हुआ कि मसीही शिक्षा पूर्णतः सत्य की शिक्षा है (2कुरि.4:2, गला.2:5,5:7; इफि.1:13,1तीमु.2:4, 2तीमु.2:15)।
मसीही स्वभाव –
सत्य के प्रति आज्ञाकारी होने के कारण उन्हें सत्य के प्रति पूरी ईमानदारी, सच्चाई और विश्वासयोग्यता के साथ स्वामिभक्त भी होना चाहिए (1कुरि.5:8, 2कुरि.4:2, गला.4:16, 1पत.1:22)। मसीहियों के पास परमेश्वर का सत्य है परन्तु इस कारण वे यह दावा नहीं कर सकते कि उनके अपने सिद्धांत और विचार पूर्ण अधिकृत हैं। मनुष्य का मस्तिष्क सीमित है और सब लोगों के समान वह पाप से प्रभावित है (1कुरि.8:2)। केवल परमेश्वर ही सम्पूर्ण सत्य का स्वामी है (यशा.55:8-9, रोमियो 11:33-34)।
स्वतंत्रता [Freedom] –
बाइबल में पापी मनुष्य की समानता एक ऐसे दास से की गई है जो व्यवस्था,पाप, शैतान और मृत्यु के दासत्व में पड़ा हो। जब वह विश्वास से परमेश्वर के उद्धार को ग्रहण कर लेता है तब वह इस दासत्व से छूट जाता है (लूका 13:16, यूह.8:31-34, रोमियो 6:17-18, गला.4:5-7)। यह परमेश्वर के महान अनुग्रह का कार्य है जिसका आधार यीशु मसीह का जीवन, उसकी मृत्यु और उसका पुनरुत्थान है (लूका4:17-19, यूह.8:36, रोमियो 7:4-6,8:2, इब्रा.2:14-15)।
मसीही जीवन –
यद्यपि मसीही उस व्यवस्था से स्वतन्त्र हैं जिससे प्राचीन इस्राएली बंधे हुए थे परन्तु फिर भी वे अपनी इच्छा के अनुसार जो कुछ भी करना चाहें उसके लिए स्वतंत्र नहीं हैं। वे परमेश्वर के अनुग्रह से बचाए गए हैं जिससे कि वे पाप से ऐसे स्वतन्त्र हों कि फिर पाप के अधिकार में न पड़ें (रोमियो 6:6-14,गला.5:13, 1पत.2:16, 2पत.2:19)। उन्हें मसीह के संगति के द्वारा उन लोगों के समान रहना चाहिए जो पाप के लिए मर चुके हैं और जिन्होंने ऐसा नया जीवन पाया है जहां धार्मिकता का राज्य है ( रोमियो 6:16-19,1पत.2:24,4:1-2)।
हम अपनी स्वतंत्रता को दूसरों के हितों का ध्यान रखकर नियन्त्रित करके वे सच्चे मसीही प्रेम का प्रदर्शन करते हैं (1कुरि.9:19-23, 10:23-24)।
हमें व्यक्तिगत आत्म-त्याग की आवश्यकता है। हम मसीहियों को उन नैतिक और धार्मिक रीतियों की व्यवस्थाओं का सामना करना चाहिए हालांकि हम मसीही लोग व्यवस्था का पालन करके धार्मिकता को प्राप्त नहीं कर सकते। हम इसे केवल हमारे मन में निवास करने वाले पवित्र आत्मा के नियंत्रण में रखकर सच्ची स्वतंत्रता का अभ्यास करके पा सकते हैं (गला.5:14-16, 2कुरि.3:17)।
पवित्र आत्मा में स्वतंत्रता का अर्थ है कि हम मसीहियों को आत्म-अनुशासन का पालन करते हुए प्रभु यीशु मसीह के प्रेम, विश्वास और धार्मिकता में बढ़ना बहुत ही आवश्यक है। आत्म-अनुशासन में ही पवित्र आत्मा के कार्य का एक प्रमाण है (गला.5:22-23)। यद्यपि हम पाप, शैतान, मृत्यु और व्यवस्था से तो स्वतन्त्र किये गयें हैं परन्तु हम परमेश्वर से स्वतन्त्र नहीं है। हम परमेश्वर के दास हैं क्योंकि परमेश्वर ने हमें मोल लेकर खरीद लिया है। हम परमेश्वर के हैं (1कुरि.6:19-20, 7:22-23)। परमेश्वर के दास होने के कारण हमारा उत्तरदायित्व है कि हम धार्मिकता से जीवन बिताएं (रोमियो 6:17-22)।
परमेश्वर की स्वतंत्रता का अनुभव करने के पश्चात परमेश्वर की इच्छा को हम विश्वासियों को ध्यान रखना चाहिए कि –
(1) मनुष्य, पाप और उसके दुष्परिणामों - बीमारियों और दु:खों से स्वतंत्रता पाएं (मर.5:1-6,18-19, लूका13:16, प्रेरि.10:38)।
(2) हम भूख और गरीबी से स्वतन्त्रता पाएं (व्य.15:1-11,24:19-22, मत्ती 25:37-40, प्रेरि.11:27-29)।
(3) परदेशी राष्ट्रों की अधीनता और अत्याचारी शासकों से स्वतंत्रता पाएं (निर्ग.6:6, नहूम 3:18-19, सप.3:19, प्रका.19:20)।
(4) मानवीय दासत्व और सामाजिक अन्याय से स्वतंत्रता पाएं (निर्ग.22:21-27, व्य.23:15-16, लूका4:17-19, याकूब 5:4-6)।
वास्तव में, परमेश्वर की इच्छा है कि मनुष्य हर प्रकार के दासत्व यहां तक कि जगत के प्राकृतिक बन्धन से भी स्वतंत्रता पाएं (रोमियो 8:21-24)।
3.हम तो अब्राहम के वंश से हैं, और कभी किसी के दास नहीं हुए। फिर तू कैसे कहता है कि तुम स्वतंत्र हो जाओगे? [Jn8:33]-
अब्राहम [इब्राहिम] का मौलिक नाम अब्राम था। यह नाम परमेश्वर ने उस प्रतीज्ञा के पुष्टिकरण के लिए दिया था कि अब्राहम एक बड़ी जाति का पिता होगा (उत्प.17:5-7)। इस प्रतीज्ञा की पूर्ति के साथ अब्राहम वास्तव में इस्राएली जाति का पिता हुआ (मत्ती 3:9, यूह.8:37)। उसने परमेश्वर की प्रतीज्ञा को विश्वास के साथ स्वीकार कर लिया, इसलिए वह उन सब का भी आत्मिक पिता ठहरा। जो परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को विश्वास के द्वारा ग्रहण करते हैं,चाहे वे किसी भी देश या जाति के क्यों न हों।
परमेश्वर ने अब्राहम को इस उद्देश्य से चुना था कि उसके द्वारा एक जाति अर्थात् इस्राएल को उत्पन्न करें (2कुरि.11:22) और रहने के लिए एक देश अर्थात् कनान देश दे (उत्प.12:5-7), और उस जाति में से एक विशेष व्यक्ति को निकाले अर्थात् प्रभु यीशु मसीह को (रोमियो 9:4-5) जो वास्तव में सम्पूर्ण जगत का उध्दारकर्ता हो।
पलिश्तीन के क्षेत्र में जब अब्राहम अपनी भेड़-बकरियों और गाय-बैलों की रखवाली करते हुए यह रहा था तब अब्राहम को अपमानित होना पड़ा था जब उसने उस क्षेत्र के शासक के साथ धोखा किया (उत्प.20:1-3)।
प्रतिज्ञात पुत्र (इसहाक) के उत्पन्न होने से पूर्व होनेवाली अब्राहम की असफलता ने फिर से प्रकट किया कि अब्राहम पर जो जो आशीष थी वह मानवीय कार्यों पर नहीं वरन् यह पूर्णतः स्वर्गीय अनुग्रह पर निर्भर थी (रोमियों4:1-5)।
अब्राहम जब 100 वर्ष का हुआ तब अब्राहम और सारा से इसहाक अर्थात् वह पुत्र उत्पन्न हुआ जिसकी प्रतिज्ञा की गई थी । यध्दपि वृद्ध दम्पत्ति के लिए सन्तान उत्पन्न करना स्पष्टत: असम्भव था फिर भी अब्राहम ने परमेश्वर की प्रतिज्ञा को विश्वास के द्वारा स्वीकार किया (उत्प.21:2-5, रोमियो 4:17-21)।
जो प्रतिज्ञाएं अब्राहम को दी गई थी वे प्रभु यीशु मसीह में पूर्ण हुई जिसके द्वारा सब जाति के लोग उद्धार पाते हैं (लूका1:72-73, गला.3:8,14,16)। जब विश्वासी लोग मसीह की प्रजा बन जाते हैं तो वह उसके द्वारा अब्राहम को दी जाने वाली प्रतिज्ञा में साझेदार हो जाते हैं (रोमियो 4:16-17, गला. 3:9,29, इफि.3:6)।
4.जो कोई पाप करता है, वह पाप का दास है। [Jn8:34]-
पाप [Sin] –
1.जो कुछ विश्वास से नहीं, वह पाप है।
(रोमियो 14:23 - परन्तु जो सन्देह कर के खाता है, वह दण्ड के योग्य ठहर चुका, क्योंकि वह निश्चय धारणा से नहीं खाता, और जो कुछ विश्वास से नहीं, वह पाप है।)
2.जो कोई भलाई नहीं करता है, वह पाप है।
(याकूब 4:17 - इसलिये जो कोई भलाई करना जानता है और नहीं करता, उसके लिये यह पाप है।)
3. जो कोई व्यवस्था का विरोध करता है, वह पाप है।
(1 यूहन्ना 3:4 - जो कोई पाप करता है, वह व्यवस्था का विरोध करता है; ओर पाप तो व्यवस्था का विरोध है।)
4.जानबूझकर किए जानेवाले गलत कार्यों और जो नैतिक बुराइयों से लेकर दुर्बलताओं में दिखाई देता है, वह पाप है (निर्ग.32:30, नीति.28:13, मत्ती 5:22,28)।
पाप के स्त्रोत –
1.मन-
मत्ती 15:19 - क्योंकि कुचिन्ता, हत्या, पर स्त्रीगमन, व्यभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा मन ही से निकलतीं है।
2.वासना-
(याकूब 1:15 - फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।)
शैतान ने अदन की वाटिका में जो कार्य किया उससे प्रकट होता है कि आदमी और हव्वा के पाप करने से पहले भी जगत में पाप था।
मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है-
आदम की सहभागिता के कारण पापी होने के अतिरिक्त लोग अपने कार्यों के कारण भी पापी ठहरते हैं। आदम से विरासत में पापी स्वभाव पाने के कारण वे जन्म ही से पापी हैं और इस पापी स्वभाव का फल पापी विचार और कार्य हैं (भजन 51:5, यूह.3:6, इफि.4:17-18)।
लोगों को पाप करना सिखाने की आवश्यकता नहीं होती, वे स्वभावत: जन्म से ही पाप करते हैं। पापपूर्ण शब्द और कार्य उस बड़ी बुराई का बाहरी चिन्ह है जो मन, मस्तिष्क और इच्छा में बसा हुआ पाप है (नीति.4:23, यिर्म.17:9,मर.7:21-23,गला.5:19-21, इफि.2:3)।
मनुष्य का सम्पूर्ण स्वभाव पाप से प्रभावित है। सब लोग पापी हैं परन्तु सब में यह पापी दशा एक समान नहीं है। विवेक का शक्तिशाली प्रभाव, इच्छाशक्ति, नागरिक व्यवस्था और सामाजिक नियम लोगों को उनकी मन की इच्छा को पूरा करने से रोक सकते हैं कि वे भलाई करें (लूका6:33,11:13, रोमियों 2:14-15,13:3)।
परमेश्वर के बिना मनुष्य की निराशाजनक स्थिति –
मनुष्य की दशा निराशाजनक है। उसके पाप ने उसे परमेश्वर से अलग कर दिया है और अब कोई ऐसा मार्ग नहीं है कि वह अपने आप से परमेश्वर के पास लौट सके (यशा.59:2,सब.1:13,कुलु.1:21)। वह पाप का दास है और अपने आप स्वतन्त्र नहीं हो सकता (यूह.8:34, रोमियों 7:21-23)। वह परमेश्वर के शाप के अधीन है और स्वयं को बचाने में असमर्थ है ( रोमियों3:19-20)। वह परमेश्वर के क्रोध के अधीन है और इससे वह बच नहीं सकता (रोमियों1:18)।
मनुष्य अपने पाप में मृत है और अपने आप को जीवित करने में असमर्थ है। परन्तु फिर भी परमेश्वर अपने अनुग्रह के कारण उसे नया जीवन देता है जिससे कि वह आत्मिक रूप से ‘नया जीवन' पाएं (यूह.3:3-8, इफि.2:1) यह पूर्णतः परमेश्वर का कार्य है। यह यीशु मसीह की मृत्यु के द्वारा सम्भव हुआ और उन सब लोगों के जीवन में प्रभावकारी है जो पापों से पश्चाताप करके परमेश्वर के पास आते हैं (युह.1:13,29, 6:44-45, प्रेरितों3:19, रोमियों3:24-25, इफि.2:8-9)।
"क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है" (रोमियों 6:23)।
"परन्तु बलवाइयों और पापियों का एक संग नाश होगा, और जिन्होंने यहोवा को त्यागा है, उनका अन्त हो जाएगा" (यशायाह 1:28)।
"परन्तु डरपोकों, अविश्वासियों, घिनौनों, हत्यारों, व्यभिचारियों, टोन्हों, मूर्तिपूजकों, और सब झूठों का भाग उस झील में मिलेगा, जो आग और गन्धक से जलती रहती है: यह दूसरी मृत्यु है" (प्रकाशितवाक्य 21:8)।
"जो प्राणी पाप करे वही मरेगा, न तो पुत्र पिता के अधर्म का भार उठाएगा और न पिता पुत्र का; धर्मी को अपने ही धर्म का फल, और दुष्ट को अपनी ही दुष्टता का फल मिलेगा" (यहेजकेल 18:20)।
"जो मुझसे, 'हे प्रभु, हे प्रभु' कहता है, उनमें से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है (मत्ती 7:21)।
5.दास सदा घर में नहीं रहता: पुत्र सदा रहता है।[Jn8:35] -
इश्माएल [Ishmael], अब्राहम का वह पुत्र था जो मिस्री दासी हाजिरा से पैदा हुआ था। वह अब्राहम तथा सारा के अविश्वास के परिणामस्वरूप उस समय उत्पन्न हुआ था जब उन्होंने सोचा कि सारा उस पुत्र को जन्म नहीं सकेगी जिसकी प्रतिज्ञा परमेश्वर ने उनसे की थी और उन्होंने अब्राहम के लिए हाजिरा से सन्तान उत्पन्न करने का प्रबन्ध कर लिया (उत्प.16:1-3)।
इश्माएल के सम्बन्ध में परमेश्वर ने प्रतिज्ञा ली कि वह मरुस्थल में स्वतन्त्र और सामर्थी जीवन बिताएगा तथा एक बड़ी और प्रसिद्ध जाति का मूल पिता होगा (उत्प.16:11-12, 17:20)। परन्तु यह वह पुत्र नहीं था जिसकी प्रतिज्ञा अब्राहम से की गई थी और जिससे परमेश्वर अपनी वाचा के लोगों को तैयार करनेवाला था। परमेश्वर की प्रतिज्ञाएं इसहाक के द्वारा पूरी होने को थी अर्थात् उस पुत्र के द्वारा जो बाद में अब्राहम और सारा से उत्पन्न हुआ (उत्प.17:15-19)।
जब सारा और हाजिरा में झगड़ा हुआ तब अब्राहम के कुटुम्ब से हाजिरा और इश्माएल को निकल जाने और स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बाध्य होना पड़ा (उत्प.21:8-21)। “नया नियम” के समय पौलुस ने हाजिरा और इश्माएल के निकल जाने को ऐसा समझा जैसे व्यवस्था के दासों को परिवार अर्थात् कलीसिया में कोई स्थान नहीं मिलता। कलीसिया में लोगों को पुत्र के समान स्वतंत्रता होती है और वे विश्वास के द्वारा परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को पाते हैं (गला.4:28-31)।
इश्माएल मरुस्थल में रहनेवाला एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति बन गया जैसा परमेश्वर ने पहिले ही कह दिया था (उत्प.21:20 तु.16:12)। उसने मिस्र की एक स्त्री से विवाह कर लिया (उत्प.21:21) और उसकी एक पुत्री ने इसहाक के पुत्र एसाव से विवाह किया (उत्प.28:9)। इसहाक और इश्माएल अपने पिता की मृत्यु के पश्चात उसके दफ़न क्रिया के अवसर पर कुछ समय तक साथ साथ रहे (उत्प.25:7-10)।
कनान के आस-पास रहने वाले कबीले इश्माएल के वंशज थे (उत्प.25:12-18)।
इसहाक [Isaac] –
यद्यपि अब्राहम और सारा बूढ़े हो चुके थे फिर भी परमेश्वर ने उनसे प्रतिज्ञा की कि उनसे एक पुत्र होगा। यह बात प्राकृतिक नियम के बिल्कुल विपरीत थी कि अब्राहम और सारा जैसे वृद्ध दम्पत्ति से सन्तान उत्पन्न हो । परन्तु इससे स्पष्ट हो गया कि यह कार्य परमेश्वर का था (उत्प.18:10-14,21:25) । जिसके द्वारा परमेश्वर अपनी वाचा की प्रतिज्ञा को पूरा करके आगे बढ़ाएगा । यह बालक इसहाक था (उत्प.17:19,21) । चूंकि परमेश्वर ने प्रतिज्ञा की थी और अब्राहम और सारा ने उसके अनुसार विश्वास से कार्य किया था । अतः इसहाक ‘प्रतिज्ञाएं पुत्र’ था । वह विश्वास का एक जीवित उदाहरण था कि विश्वास के द्वारा परमेश्वर को ग्रहण करके उसकी प्रतिज्ञाओं का आनंद उठाया जा सकता है (रोमि.4:17-22,9:7-9, गला.4:21-31) । अब्राहम का विश्वास एक बार फिर उस समय परखा गया जबकि परमेश्वर ने उसे इसहाक को बलिदान करने को कहा (उस समय इसहाक किशोरावस्था में था - उत्प.22:6), जबकि यही व्यक्ति एक व्यक्ति था जिसके द्वारा परमेश्वर की प्रतिज्ञाएं पूरी हो सकती थीं । अब्राहम ने परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन इस विश्वास से किया कि परमेश्वर इसहाक को मृतक अवस्था से फिर जीवित कर देगा। एक प्रकार से अब्राहम ने इसहाक को मृतक अवस्था में फिर से पा लिया जबकि परमेश्वर ने उसके बलिदान के विकल्प रूप में एक मेमने का प्रबन्ध कर दिया (उत्प.22:1-2,12-13, इब्रा.11:17-19, याकूब 2:21-23)।
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6.इसलिये यदि पुत्र तुम्हें स्वतंत्र करेगा, तो सचमुच तुम स्वतंत्र हो जाओगे।[Jn8:36] -
यह वचन हमारे पवित्रशास्त्र में सबसे प्रेरणादायक वचनों में से एक है। पाप हमें अपना दास बनाता है, सच्ची स्वतंत्रता हमें केवल यीशु मसीह से मिलता है (यूह.8:31,32)। पाप हमें स्वतंत्रता का भरोसा दिलाकर धोखा देता है और अपने नियंत्रण में रखकर भ्रष्ट करता है। जो लोग यीशु मसीह में विश्वास नहीं करते हैं, वे पाप से बन्धे हैं (रोमि.6:18), और न केवल दासता के अधीन हैं, बल्कि आत्मिक मृत्यु के अधीन भी है (यूह.8:36)। यीशु मसीह ही आत्मिक सत्य का एकमात्र स्रोत है जो हमें वास्तव में स्वतंत्र करता है (यूह.8:12)।
फिलिप्पी बन्दीगृह का एक जेलर ने पौलुस और सिलास को बन्दीगृह से बाहर लाकर प्रश्न पूछा था, “उद्धार पाने के लिये मैं क्या करूं?” तब पौलुस ने सरलता से उत्तर दिया कि “प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास कर, तो तू और तेरा घराना उद्धार पाएगा (प्रेरि.16:30-31)।” उसे पापों की क्षमा, आत्मा के उद्धार और अनन्त जीवन के लिए प्रभु यीशु मसीह के व्यक्तित्व और कार्य पर विश्वास करना था। सच्चाई पर विश्वास करने से जेलर पाप के दास और शैतान के बंधन से स्वतंत्र हो जाएगा। सत्य पर विश्वास करने से व्यक्ति व्यवस्था के अभिशाप और अनन्त दण्ड से स्वतंत्र हो जाएगा। सत्य पर विश्वास करने से व्यक्ति अंधकार के राज्य से प्रकाश और अनन्त जीवन के राज्य में प्रवेश हो जाएगा।
जेलर को केवल प्रभु यीशु मसीह के व्यक्तित्व और कार्य के बारे में जानने के द्वारा ही नहीं, बल्कि उन्हें उद्धारकर्ता के रूप में जानने के द्वारा स्वतन्त्र किया गया था।
यूहन्ना 1:14,18-
[14]और वचन देहधारी हुआ; और अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण होकर हमारे बीच में डेरा किया, और हम ने उस की ऐसी महिमा देखी, जैसी पिता के एकलौते की महिमा।
[18]परमेश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा, एकलौता पुत्र जो पिता की गोद में हैं, उसी ने उसे प्रगट किया।
यूहन्ना 3:35-36 -
[35]पिता पुत्र से प्रेम रखता है, और उस ने सब वस्तुएं उसके हाथ में दे दी हैं।
[36]जो पुत्र पर विश्वास करता है, अनन्त जीवन उसका है; परन्तु जो पुत्र की नहीं मानता, वह जीवन को नहीं देखेगा, परन्तु परमेश्वर का क्रोध उस पर रहता है।
यूहन्ना 5:21-23 -
[21]क्योंकि जैसा पिता मरे हुओं को उठाता और जिलाता है, वैसा ही पुत्र भी जिन्हें चाहता है उन्हें जिलाता है।
[22]और पिता किसी का न्याय भी नहीं करता, परन्तु न्याय करने का सब काम पुत्र को सौंप दिया है।
[23]इसलिये कि सब लोग जैसे पिता का आदर करते हैं वैसे ही पुत्र का भी आदर करें: जो पुत्र का आदर नहीं करता, वह पिता का जिस ने उसे भेजा है, आदर नहीं करता।
यूहन्ना 5:25-27 -
[25]मैं तुम से सच सच कहता हूं, वह समय आता है, और अब है, जिस में मृतक परमेश्वर के पुत्र का शब्द सुनेंगे, और जो सुनेंगे वे जीएंगे।
[26]क्योंकि जिस रीति से पिता अपने आप में जीवन रखता है, उसी रीति से उस ने पुत्र को भी यह अधिकार दिया है कि अपने आप में जीवन रखे।
[27]वरन उसे न्याय करने का भी अधिकार दिया है, इसलिये कि वह मनुष्य का पुत्र है।
यूहन्ना 6:27- नाशमान भोजन के लिये परिश्रम न करो, परन्तु उस भोजन के लिये जो अनन्त जीवन तक ठहरता है, जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हें देगा, क्योंकि पिता, अर्थात परमेश्वर ने उसी पर छाप कर दी है।
गलातियों 4:7 - इसलिये तू अब दास नहीं, परन्तु पुत्र है; और जब पुत्र हुआ, तो परमेश्वर के द्वारा वारिस भी हुआ।
फरीसियों में से नीकुदेमुस,जो यहूदियों का सरदार था। यीशु ने स्वयं नीकुदेमुस को समझाया कि परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उस ने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए (यूह.3:16)। यीशु को क्रूस पर चढ़ाया जाना था और उसका लहू संसार के पापों के लिए बहाया जाना था। यह केवल यीशु मसीह के सूली पर चढ़ाए जाने के ऐतिहासिक तथ्यों के बारे में ही जानना नहीं है जो लोगों को स्वतंत्र करता है। इस सत्य को जानना है जो मनुष्य को पाप के बन्धन से स्वतंत्र करता है और जब कोई व्यक्ति व्यवस्था के अभिशाप और पाप की दासता से स्वतंत्र हो जाता है। वास्तव में, मनुष्य अनुग्रह द्वारा यीशु मसीह में विश्वास के द्वारा स्वतंत्र हो जाता है।
हर मनुष्य पापमय पैदा होता है। हर कोई पाप के बन्धन में रहता है। हर कोई पाप का दास है और पाप में फंसा हुआ है। प्रत्येक मनुष्य परमेश्वर से अलग हो गया है और पाप के भारी बोझ से जकड़ा हुआ है। पाप, शैतान, मृत्यु और व्यवस्था के अभिशाप की दासता से मुक्त होने का एकमात्र तरीका यह है कि यीशु मसीह को व्यक्तिगत रूप से जानना और यीशु को अपने स्वयं के व्यक्तिगत उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करना भी है, जो हमारे पापों की कीमत चुकाने के लिए स्वेच्छा से हमारे बदले मर गया। परमेश्वर के एकलौते पुत्र के छुटकारे के लहू के द्वारा जब हम पाप, शैतान, मृत्यु और व्यवस्था के श्राप की दासता से स्वतंत्र हो जाते हैं तब हम पुत्र को मुक्तिदाता और पुत्र–परमेश्वर के रूप में जानते हैं। जो हमसे प्रेम करता है और हमारे लिए खुद को क्रूस पर न्योछावर कर दिया और हमें हमेशा के लिए पाप से स्वतंत्र कर दिया।
हे मुक्तिदाता - प्रभु यीशु मसीह, केवल आप में ही पूर्ण सत्य और स्वतंत्रता निहित है। आप में ही हर पाप के बन्धनों से और हर गलतियों से हमें स्वतंत्र करने की सामर्थ है। हे प्रभु यीशु हमें सारे पाप और बुराई के बंधनों से मुक्त कीजिए और हमें सदैव अपनी सहभागिता एवं अपनी अधीनता में बनाये रखिए। आमीन ।
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