28.05.2021
परमेश्वर की सेवा करने पर भौतिक जीवन के चिन्ताओं से मुक्ति
मत्ती 6:24-34 -
[24] ”कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर ओर दूसरे से प्रेम रखेगा, या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा। “तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते”।
[25] इसलिये मैं तुम से कहता हूं, कि अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएंगे और क्या पीएंगे; और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे। क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं?
[26] आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; फिर भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?
[27] तुम में कौन है, जो चिन्ता करके अपनी आयु में एक घड़ी भी बढ़ा सकता है?
[28] ”और वस्त्र के लिये क्यों चिन्ता करते हो? जंगली सोसनों पर ध्यान करो, कि वे कैसे बढ़ते हैं; वे न तो परिश्रम करते हैं, न कातते हैं।
[29] तौभी मैं तुम से कहता हूं, कि सुलैमान भी, अपने सारे वैभव में उनमें से किसी के समान वस्त्र पहिने हुए न था।
[30] इसलिये जब परमेश्वर मैदान की घास को, जो आज है, और कल भाड़ में झोंकी जाएगी, ऐसा वस्त्र पहिनाता है, तो हे अल्पविश्वासियों, तुम को वह इनसे बढ़कर क्यों न पहिनाएगा?”
[31] ”इसलिये तुम चिन्ता करके यह न कहना कि हम क्या खाएंगे, या क्या पीएंगे, या क्या पहिनेंगे।
[32] क्योंकि अन्यजातीय इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं, पर तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है कि तुम्हें इन सब वस्तुओं की आवश्यकता है।
[33] इसलिये पहले तुम परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी।
[34] अतः कल की चिन्ता न करो, क्योंकि कल का दिन अपनी चिन्ता आप कर लेगा; आज के लिये आज ही का दुःख बहुत है।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. परमेश्वर के सम्बन्ध में -
प्रभु यीशु मसीह, मत्ती 6:24 में बतलाता है कि “तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते”। --- क्योंकि वह एक से बैर ओर दूसरे से प्रेम रखेगा, या एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा।
चूंकि मसीही विश्वासियों का एक सिद्धान्त यह है कि परमेश्वर ने सब वस्तुओं की सृष्टि की और परमेश्वर के व्यक्तित्व के तीनों व्यक्ति सृष्टि के सृजन कार्य में सम्मिलित थे। परमेश्वर ने कहा और उसके वचन की सृजनात्मक शक्ति से सृजन हो गया। [उत्प.1:1-3,यूह.1:1-3,इब्रा.1:1-2,अय्यूब33:4] परमेश्वर ने दृश्य तथा अदृश्य सब वस्तुओं की सृष्टि की थी, आत्मिक जीवों को बनाया, इसके बाद भौतिक वस्तुओं की भी उत्पत्ति की थी। परमेश्वर ने भौतिक वस्तुओं का प्रयोग जगत और उसके गुणों के विकास के लिए किया। परमेश्वर आज भी भौतिक जगत में क्रियाशील है। परमेश्वर धन से बड़ा है तो आइए हम परमेश्वर की सेवा तन-मन-धन से करें क्योंकि परमेश्वर ही स्तुति, प्रशंसा और महिमा योग्य है।
परमेश्वर का शाब्दिक अर्थ ‘परम ईश्वर’ है। परमेश्वर एक है। परमेश्वर का अस्तित्व त्रिएकत्व अर्थात् पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा में है।
• पिता नाम का अर्थ है कि वह सब बातों का मूल है और यह सृष्टि के महान कार्यों इतिहास और उध्दार के कार्य से देखा जा सकता है।[मला.2:10, इफि.1:3-10,इब्रा.12:9, याकूब 1:17]
• पुत्र वह है जो पिता को प्रकट करता है और पिता जिसके द्वारा महान कार्य करता है। [यूह.10:25,38,14:10,2कुरि.5:19,इफि.1:3-10, कुलु.1:15-16]
• पवित्र आत्मा वह है जिसके द्वारा परमेश्वर का सामर्थ इस जगत में कार्य करता है अर्थात् यह वही है जो परमेश्वर के महान कार्य के सत्य को लोगों के जीवन में लागू करता है। [यूह.14:17,16:7-13, प्रेरितों1:8, रोमियों8:2-4,गला.5:16-18,1पत.1:2]
• परमेश्वर का उद्धार लोगों को पिता से उसके पुत्र द्वारा पवित्र आत्मा से मिलता है। [तीतुस3:4-6] और मनुष्य की पहुंच पवित्र आत्मा के द्वारा परमेश्वर पुत्र से होकर पिता परमेश्वर तक होती है। [इफि.2:18]
यूहन्ना 1:1-3-
[1] आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था।
[2] यही आदि में परमेश्वर के साथ था।
[3] सब कुछ उसी के द्वारा उत्पन्न हुआ और जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उस में से कोई भी वस्तु उसके बिना उत्पन्न न हुई।
1यूहन्ना4:8 का दूसरा खण्ड-“परमेश्वर प्रेम है”।
2. धन[Money] के सम्बन्ध में-
बाइबल धन-संपत्ति के उपयोग को मानवीय समाज में अच्छे जीवन का एक भाग मानती है। परन्तु धन से प्राप्त होनेवाला लाभ अस्थाई होता है और जो इसको बढ़ाने में अधिक चिंतित होते हैं वे अपने आप को संकट में फंसा लेते हैं। [मत्ती6:19-23, 1तीमु.6:9-10]
गरीबों को भी लोग पसन्द नहीं करते हैं अतः लोगों को अपने धन का प्रयोग आवश्यकता से पीड़ित लोगों की सहायता करने के लिए प्रयोग में लाना चाहिए। [व्य.15:7-10,याकूब 2:15-16]
मसीहियों को उदारता के साथ अपना धन परमेश्वर तथा जगत में उसके कार्य के लिए अर्पित करना चाहिए। [2कुरि.9:6-13]
धन-संपत्ति [Wealth]
परमेश्वर ने भौतिक जगत की उत्पत्ति की और उसे मनुष्य के आनन्द के लिए दे दिया। [उत्प.1:26,2:16, 1तीमु.4:4] परन्तु इसमें सदा यह खतरा है कि परमेश्वर द्वारा दिए गए वरदान का मनुष्य दुर्पयोग करेगा। यद्यपि पुराना नियम तथा नया नियम दोनों यह बतलाते हैं कि धन-संपत्ति परमेश्वर की ओर से एक वरदान हो सकता है जिसका मनुष्य को आनन्द उठाना चाहिए।[सभो.5:10,1तीमु.6:17] फिर भी प्रत्येक कथन के आरम्भ में इसके दुर्पयोग से होनेवाले खतरे की चेतावनी दी गई है। [सभो.5:10,1तीमु.6:10]
यह आवश्यक नहीं कि ‘धन’ केवल भक्ति के कारण पुरस्कार स्वरूप प्राप्त हो। परन्तु कुछ दशाओं में ऐसा हो सकता है। [व्य.28:1-6, भ.सं.112:1-3, 2कुरि.9:10-11]
नीतिवचन 10:22 – धन यहोवा की आशीष ही से मिलता है, और वह उसके साथ दु:ख नहीं मिलाता।
1इतिहास 29:12 – धन और महिमा तेरी ओर से मिलती हैं, और तू सभों के ऊपर प्रभुता करता है। सामर्थ्य और पराक्रम तेरे ही हाथ में हैं, और सब लोगों को बढ़ाना और बल देना तेरे हाथ में है।
परन्तु किसी-किसी मामले में लालच और अन्याय के कारण भी धन प्राप्त हो सकता है। [यशा.3:14-15, याकूब 5:1-6.]
धन-संपत्ति का एक ख़तरा यह है कि यह मनुष्य में स्वतन्त्रता की ऐसी भावना भर देता है जिससे कि लोग परमेश्वर में वैसा विश्वास नहीं करते जैसा उन्हें करना चाहिए। [व्य.8:17-18,भ.सं.10:3,52:7,मर.10:23, नीति.18:11,28:11,1तीमु6:17] कुछ लोग धनी बनने की इतनी अधिक अभिलाषा रखते हैं कि उनकी धन-संपत्ति उनके लिए देवी-देवता के समान हो जाता है। ऐसी धन-संपत्ति से छुटकारा पाकर ही वे अनन्त जीवन पा सकते हैं। [मत्ती 6:24,13:22, 19:16,21-22] यद्यपि यीशु ने अपने शिष्यों से धन-संपत्ति छोड़ने के लिए नहीं कहा फिर भी उसने परमेश्वर के प्रति भक्ति या दूसरों के प्रति चिंता के बदले धन के प्रति लालसा रखने के खतरे से सावधान किया। [मत्ती6:19-21,लूका12:16-21,16:19-25]
मसीहियों को धन के कारण होनेवाले खतरे से निरन्तर सावधान रहना चाहिए क्योंकि धन का लोभ आत्मिक पतन की ओर ले जा सकता है। [नीति.11:28, 1तीमु.6:9-10] उन्हें हर परिस्थिति में सन्तुष्ट रहना चाहिए और जो कुछ उनके पास है उसमें सन्तोष करके अपनी चिन्ताओं को परमेश्वर पर डालकर उस पर भरोसा रखना चाहिए। [मत्ती 6:33,लूका12:15, फिलि.14:11-12,इब्रा.13:5]
बाइबल सदैव धन की भर्त्सना नहीं करती क्योंकि धनी व्यक्ति उदारता से दान देकर दूसरों की सहायता कर सकता है। [व्य.15:1-11,मत्ती 27:57-60, लूका12:33,16:9-13,प्रेरितों4:36-37,20:35,2कुरि.8:14,9:6-7, 1तीमु.6:17-19] परन्तु बाइबल सदैव विलासिता की भर्त्सना करती है क्योंकि इसमें आत्मकेंद्रित अपव्यय तथा दूसरों के प्रति उदासीनता होती है। [यशा.5:8-12,आमोस6:4-6,लूका6:24-25, 16:19,याकूब5:1-5]
वे लोग जो अपने धन का प्रयोग शक्ति प्राप्त करने के लिए करते हैं उनकी भर्त्सना की गई है। विशेषकर उन लोगों को ठीक नहीं समझा गया है जो ऐसे लोगों को दबाते हैं जिनके पास बचाव का कोई साधन नहीं होता। [यिर्म.22:13-17,आमोस4:1,5:11-12, मीका2:1-2, याकूब 2:6,5:1-6] इसके विपरीत मसीहियों को यीशु मसीह के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए तथा अन्य लोगों की भलाई का ध्यान अपने से पहले रखना चाहिए। [2कुरि.8:9, फिलि.2:4-8]
धन वो “शक्ति” है जो हमें हर स्थिति का सामना करने और संसार में सफल होने का ‘झूठा’ भरोसा दिलाती है।
धन = पैसा + संपत्ति + ज्ञान + शिक्षा +परिवार + धर्म + कर्म + तंत्र + सामाजिक पहुंच + राजनीतिक पहुंच।
परमेश्वर का वचन कहता है ‘धन’ के पंख होते हैं और वो पक्षी की तरह हमारे पास से उड़ जाता है। नीतिवचन 23:5 हमारा भरोसा भी हवा में उड़ जाएगा।
धन शक्ति है, मनुष्य का प्रयास है, सामर्थ है, मनुष्य द्वारा उपजाया हुआ फल है। जिसे कीड़े खा लेते हैं। धन हमारे शरीर और स्वार्थ को खड़ा करता है।
धन पर अधिक भरोसा करना हमें पाप से मन फिराने या मुक्ति दिलाने में काम नहीं आता है।
धन का परिणाम-
धन हमें कबर तक तो सही सलामत पहुंचा देगा, ऊपर शायद मकबरा भी बनवा दे।
या हमारी चिता की लकड़ियां सजवा दे।
या ईसाई कब्रिस्तान में हमारे लिये संगमरमर का क्रूस लगवा दे।
लेकिन उसके आगे धन की पहुंच नहीं है।
3. चिन्ता के सम्बन्ध में –
[भज.94:19,139:23, नीति.12:25,मर.13:11, सभो.2:22,11:10, फिलि.4:6,1पत.5:7, लूका12:22-31,21:14,फिलि.2:28.]
चिन्ता [Anxiety] -
इस जगत में जहां लोगों का प्रतिदिन भविष्य की अनिश्चितताओं और समस्याओं का सामना करना पड़ता है,तो उनका चिन्ता करना स्वाभाविक हो जाता है।[1कुरि.7:32-33] परन्तु फिर भी जो लोग परमेश्वर पर भरोसा रखते हैं उन्हें चिन्ता के बोझ से नहीं दबना चाहिए। परमेश्वर उनकी आवश्यकताओं और चिन्ताओं को जानता है और वह उन्हें वचन देता है कि यदि तुम अपनी सब चिन्ताएं मुझ पर डाल दो तो मैं तुम्हें अपनी शान्ति दूंगा। [भ.सं.55:22, यिर्म.17:8,फिलि.4:6-7, 1पत.5:7]
यीशु उन्हें इस प्रतिज्ञा के साथ दोबारा आश्वासन देता है कि जबकि परमेश्वर उन्हें जीवन देता है तो वह उन्हें जीवन की आवश्यक वस्तुएं भी दे सकता है।[मत्ती6:31-32, लुका10:41-42, याकूब 4:13-16]
वास्तव में भौतिक जीवन की आवश्यकताओं के प्रति चिन्ता प्रायः हमें परमेश्वर के पास आने और उसे जानने से रोकती है। वे इस बात पर गम्भीरता से ध्यान नहीं देते जो उन्हें चिन्ताओं से छुटकारा दे सकती है अर्थात् वे प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार पर ध्यान नहीं देते। [मत्ती13:22] दूसरी ओर जब लोग अपने जीवन में परमेश्वर को प्रथम स्थान देते हैं और उसे अपने जीवन पर अधिकार करने देते हैं तो इस भौतिक जीवन की चिन्ताओं से मुक्त हो जाते हैं। [मत्ती6:33-34]
• जीवन के लिये चिन्ता मत करो –
मत्ती 6:25 - इसलिये मैं तुम से कहता हूं, कि अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएंगे और क्या पीएंगे; और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे। क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं?
मसीह अपने शिष्यों को सांसारिक चीजों [जैसे – भोजन वस्तुएं और कपड़े] के बारे में चिंता न करने की शिक्षा देता है –
[i] खाने-पीने की चिन्ता न करें- अपने प्राण के लिए खाने-पीने की चिन्ता न करने के सम्बन्ध में आकाश के पक्षियों का उदाहरण देते हुए यीशु मसीह ने पद-26 में तुलना करके बतलाया कि पक्षियां न बोते हैं, न काटते [लुनतें] हैं और न खत्तों में बटोरते हैं [बखारों में जमा करते हैं], तौभी परमेश्वर पिता उन्हें खिलाता-पिलाता [पालता] है तो हम मनुष्यों के जीवन के लिए खाने-पीने की व्यवस्था भी अवश्य ही पूरी करेगा इसलिए हम खाने-पीने के प्रति अपनी चिन्ता से निश्चिंत रहें।
[ii] वस्त्र की चिन्ता मत करो-
शरीर के लिए वस्त्र की चिन्ता न करने के सम्बन्ध में यीशु मसीह ने पद-28-30 में जंगली सोसनों, [विभिन्न प्रकार के फूल, सम्भवतः एनिमोन नाम का फूल, यद्यपि इस नाम में अन्य दूसरे फूल भी सम्मिलित हो सकते हैं ] का उदाहरण देकर तुलना किया कि सोसन कैसे बढ़ते हैं, न परिश्रम करते, न काततें हैं तौभी राजा सुलैमान अपने सारे वैभव में उसके समान वस्त्र पहने हुए न था। परमेश्वर जब मैदान की घास को,जो आज है और कल भाड़ में झोंकी जाएगी --- को ऐसा वस्त्र पहिनाता है तो हम मनुष्यों को अवश्य ही वस्त्र पहिनाएगा बशर्तें कि हम परमेश्वर पर पूरा भरोसा रखें और अल्प विश्वासियों नही बल्कि विश्वासी बनें।
[iii].चिन्ता करके आयु में एक घड़ी भी बढ़ा नहीं सकता –
मत्ती 6:27- तुम में कौन है, जो चिन्ता करके अपनी आयु में एक घड़ी भी बढ़ा सकता है?[मत्ती 6:27, लूका 12:25]
चिन्ता में डूब जाना या अत्यधिक चिन्ता करना किसी भी व्यक्ति की जीवन अवधि को नहीं बढ़ा सकती, बल्कि इसे घटा अवश्य सकती है।
[iv].पहिले से चिन्ता मत करो –
मरकुस 13:11- जब वे तुम्हें ले जाकर सौंपेंगे, तो पहिले से चिन्ता न करना, कि हम क्या कहेंगे; पर जो कुछ तुम्हें उसी घड़ी बताया जाए, वही कहना; क्योंकि बोलने वाले तुम नहीं हो, परन्तु पवित्र आत्मा है।
अर्थात् अधिकारियों के समक्ष दोषी ठहराएंगे।
[v].अन्यजातियों को खाने-पीने और पहिनने की चिन्ता रहती है-
यीशु के सभी शिष्यों [अनुयायियों] के समूह बाहर के अन्यजातीयों को इन सब वस्तुओं की खोज में लगे रहना स्वाभाविक है, कि हम क्या खाएंगे, क्या पीएंगे और पहिनेंगे! क्योंकि उनके पास कोई ईश्वर नहीं है जो उनके लिए इन सब वस्तुओं को प्रदान करता है, या जो अप्रत्याशित देवताओं में विश्वास करते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में संदेह का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके विपरीत स्वर्गीय पिता परमेश्वर, हम विश्वासियों की इन सब वस्तुओं की आवश्यकताओं को जानता है और हमें इन सब वस्तुओं की पूर्ति करता है। क्योंकि हम परमेश्वर की सेवा करते हैं और उस पर हम अपना आशा, विश्वास और भरोसा रखते हैं। [मत्ती6:31-32]
4. परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज-
परमेश्वर के राज्य का अर्थ परमेश्वर का शासन से है।यह वह क्षेत्र नहीं है जिस पर वह शासन करता है परन्तु वह शासन है जिसे वह व्यवहार में लाता है। यह भौगोलिक स्थिति, अस्तित्व के युग या लोगों की राष्ट्रीयता में परिभाषित नहीं किया जा सकता परन्तु इसे परमेश्वर के सार्वभौमिक राज्य और परमेश्वर के अधिकार में समझा जा सकता है। [निर्ग.15:18, भ.सं.103:19,145:10-13]
प्रभु यीशु ने भी परमेश्वर के राज्य को क्षेत्र या प्रजा नहीं वरन् परमेश्वर का शासन समझा। और वह व्यक्ति जो परमेश्वर के राज्य की खोज करता है वह अपने जीवन में परमेश्वर के शासन की खोज करता है। [मत्ती6:33]
और वह व्यक्ति जो परमेश्वर के राज्य को ग्रहण करता है वह परमेश्वर को अपने जीवन में ग्रहण करता है। [मर.10:15] परमेश्वर के राज्य के लिए प्रार्थना करना कि वह आए, इसका अर्थ उसके शासन को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करना है जिससे कि उसकी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है वैसे ही पृथ्वी पर पूरी हो। [मत्ती6:10] परमेश्वर का यह राज्य भौतिक नहीं परन्तु आत्मिक अर्थ रखता है।वह व्यक्ति जो परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करता है जहां वह परमेश्वर का शासन स्वीकार करता है। [मत्ती21:31]
वर्तमान काल में सम्पूर्ण जगत परमेश्वर के शासन के विरोध में है क्योंकि यह शैतान की शक्ति के अधीन है। 2कुरि.4:4,1यूह.5:19] इसलिए जब परमेश्वर का राज्य मनुष्य जाति में यीशु मसीह में व्यक्ति के समान आया तब शैतान की पराजय में परमेश्वर का राज्य प्रकट हुआ। जब यीशु ने परमेश्वर के राज्य की घोषणा की, उसने बीमारों और दुष्टात्माग्रस्त लोगों को चंगा किया और ऐसा करके उसने शैतान पर अपनी शक्ति का प्रमाण था कि परमेश्वर का राज्य लोगों के मध्य आ पहुंचा है। [मत्ती12:28,मर.1:27,लूका10:9,17-18]
यूहन्ना बपतिस्ता ने यीशु के राज्य के आगमन की घोषणा की थी। उसने इस राज्य के कुछ ही पहिले इसके आगमन की घोषणा की थी। [मत्ती3:2,लूका16:16]
परमेश्वर का राज्य और स्वर्ग का राज्य एक ही बात के दो विभिन्न नाम है।
परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना इसका अर्थ ‘अनन्त जीवन पाना’ या ‘उध्दार पाना’ है। अनन्त जीवन परमेश्वर के राज्य का जीवन है, यह भविष्य के राज्य का जीवन है। परन्तु इसलिए कि परमेश्वर का राज्य मनुष्यों के मध्य आ गया है। अतः लोगों के पास इस समय भी अनन्त जीवन है। [मत्ती25:34,46, यूह.3:3,5,15,5:24]
बाइबल के वचन के सन्दर्भ में हम परमेश्वर का राज्य और उसके धर्म के बारें में जान सकते है कि –
रोमियों 14:17-
“क्योंकि परमेश्वर का राज्य खाना-पीना नहीं, परन्तु धर्म और मेल-मिलाप और वह आनन्द है जो पवित्र आत्मा से होता है| ”
तो क्यों न हम परमेश्वर के धर्म की खोज में रहें |
मेल-मिलाप की खोज में रहें, उस आनन्द की खोज में रहें जो हमें पवित्र आत्मा से मिलता है।
राजा सुलैमान- [1राजा3:1-13;2इतिहास1:7-13]
राजा सुलैमान परमेश्वर का एक अभिषिक्त राजा था जिसे परमेस्वर ने अपना भवन बनाने के लिये और इस्राएल की प्रजा पर राज्य करने के लिये चुना था !
क्योंकि परमेस्वर ने दाऊद को यह कह चुका था कि तू मेरा भवन बनाने नहीं पायेगा पर तेरा निज पुत्र मेरा भवन बनाएगा और यहोवा ने इस काम को करने के लिये सुलैमान को चुना।
इस्राएल और यहूदा के राजा के रूप में सुलैमान का राज्याभिषेक किया गया। परमेश्वर ने सुलैमान को उनके पिता दाऊद के स्थान पर राजा नियुक्त किया तब वह छोटा-सा बालक था और उनकी माता का नाम बतशेबा था।
गिबोन में यहोवा ने रात को स्वप्न के द्वारा सुलैमान को दर्शन देकर कहा, “जो कुछ तू चाहे कि मैं तुझे दूँ, वह माँग !” [1राजा 3:5] सुलैमान ने परमेश्वर से न धन-संपत्ति, न ऐश्वर्य और न अपने बैरियों का प्राण और न अपनी दीर्घायु मांगा। सुलैमान ने अपने राज्य के इतनी बड़ी प्रजा का न्याय करने के लिए केवल बुद्धि और ज्ञान का वरदान मांगा। जिससे परमेश्वर ने सुलैमान से प्रसन्न होकर बुध्दि और ज्ञान का वरदान दिया। इसके अतिरिक्त परमेश्वर ने सुलैमान को बिना मांगे इतनी धन-संपत्ति और ऐश्वर्य भी दिया जितना कि उसके पहले किसी राजा को न दिया गया और न आगे किसी राजा को दिया जायेगा।
मत्ती 6:34 – अतः कल की चिन्ता न करो, क्योंकि कल का दिन अपनी चिन्ता आप कर लेगा; आज के लिये आज ही का दुःख बहुत है।
5. कल का दिन अपनी चिन्ता आप कर लेगा-
जब यीशु ने यह कहा कि “कल का दिन अपनी चिंता आप कर लेगा,” तो उसके कहने का मतलब था कि हमें इस बारे में हद-से-ज़्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए कि कल क्या होगा। क्योंकि इससे हमारी आज की समस्याएँ और भी बढ़ सकती हैं। हर दिन की अपनी ही परेशानियाँ होती हैं।”
6. आज के लिये आज ही का दुःख बहुत है –
प्रत्येक दिन का दुःख उसी दिन के लिए पर्याप्त है, यह कहावत एक नीतिवचन के समान है।
दु:खों का मुख्य कारण है - अज्ञान,अशक्ति और अभाव। जिसे दूर किये बिना मानव संतोष की प्राप्ति नहीं कर पाता है।
अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्व-ज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-पुल्टा सोचता है, और उल्टे काम करता है, तद्नुसार उलझनों में अधिक फंसता जाता है, और दु:खी बनता है और उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का परिणाम तो दु:ख ही है।
अशक्ति का अर्थ है- निर्बलता, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कंधे पर उठाने में समर्थ नहीं होता। फलस्वरूप, उसे उनसे वंचित रहना पड़ता है और दुःखों का सामना करना पड़ता है।
अभाव के कारण विशेष रूप से ग़रीबी और आर्थिक तंगी की स्थिति में मनुष्य कई तरह अपराध कर बैठते हैं और पाप में पड़ जाते हैं।
सत्य को छोड़ अन्य जितनी भी हमारी इच्छाएं हैं वह हमें दु:ख ही देती हैं। माया रूपी इस संसार का नियम है कि एक इच्छा के पूरी होते ही दूसरी इच्छा का मन में जन्म हो जाता है। जो नित्य चलने वाला क्रम है।हमारे दु:खों का विशेष कारण है हमारे अशुभ कर्म, पाप कर्म। पापों का फल हमेशा दु:ख ही देता है, सुख नहीं। इसे हर कोई जानता है, फिर भी मनुष्य पाप कर्म करता है और दु:खों को मोल लेता है।
इन दु:खों को दूर करने के लिए हम परमेश्वर के सम्मुख आयें और हमने जो पाप अर्जन किये हैं उसके प्रति हम पश्चाताप करें कि हमारा दु:ख आनन्द में बदल जायेगा।
परमेश्वर सब वस्तुओं का मूल स्रोत है, इसलिए परमेश्वर पर भरोसा रखना है और परमेश्वर की सेवा करने में प्रथम स्थान देना है। आइए हम अपने जीवन की सारी चिन्ताओं को परमेश्वर पर डाल दें क्योंकि परमेश्वर हमारी आवश्यकताओं को जानता है और बिना मांगे हमें सब कुछ देता है। इसलिए प्रभु यीशु मसीह हमें पहले परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म की खोज करने की शिक्षा देते हैं कि हमारे जीवन की हर आवश्यकताओं की सब आवश्यक वस्तुएं मिल जायेंगी। इसके साथ ही हमारे लिए स्वर्गीय धाम के मार्ग भी प्रशस्त हो जावेगा।
--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------