02.04.2021-। [ सातवां - क्रूस-वाणी ; अमर वाणी ; अमर वचन ]
• लूका 23:44-48 –
[44]और लगभग दो पहर से तीसरे पहर तक सारे देश में अन्धियारा छाया रहा।
[45]और सूर्य का उजियाला जाता रहा, और मन्दिर का परदा बीच में फट गया।
[46]और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा; हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं: और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।
[47]सूबेदार ने, जो कुछ हुआ था देखकर, परमेश्वर की बड़ाई की, और कहा; निश्चय यह मनुष्य धर्मी था।
[48]और भीड़ जो यह देखने को इकट्ठी हुई भी, इस घटना को, देखकर छाती- पीटती हुई लौट गई।
•लूका 23:46- Reunion (7thWord of Jesus) Dated :- 03.04.2015.
46 और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा; हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं : और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।
46.Jesus called out with a loud voice, “Father, into your hands I commit my spirit.” When he had said this, he breathed his last.
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•वचन का पृष्टभुमि-
• बाइबल के शोधकर्ताओं के अनुसार 03April33AD में यरूशलेम के निकट Golgotha नामक स्थान पर एक अव्दितीय ऐतिहासिक घटना घटी। जहाँ हमारे प्रभु यीशु मसीह ने क्रूस से उध्दार व पाप-मक्ति के लिये 07 अनमोल वचन कहा, जिसे हम क्रूस-वाणी, अमर वाणी (उक्तियाँ = utterances) के नाम से भी जानते हैं। यही वचन हमारे जीवन-यात्रा में उध्दार के मार्ग को पशस्त करता है जो हमें अनन्त जीवन का सहभागी बनाता है।
• संत लूका हमें प्रभु यीशु मसीह के क्रूस मृत्यु के समय घटित मुख्य घटनाओं के बारे में बतलाता है कि जब प्रभु यीशु क्रूस पर चढ़ाया गया तब 02 प्रतीकात्मक घटनाएं घटित हुई –
• पहली प्रतीकात्मक घटना थी – 3 घण्टे तक (12Noon से 3PM; छटवें घंटे से लेकर नौवें घंटे अर्थात् दोपहर से तीसरे पहर तक) पूरे देश में अन्धकार छा गया। [मर.15:33]
•प्रभु यीशु मसीह को पहली पहर अर्थात् प्रात: 9 बजे क्रूस-आरोपण किया गया। [मर.15:25]
•परमेश्वर की ओर से यह सच्चा चमत्कार इसलिए हुआ क्योंकि – यीशु की मृत्यु के समय विश्व-विधाता (cosmos) के द्वारा दुःख व शोक(विलाप) को व्यक्त करता है और यह यहूदी लोगों पर “परमेश्वर के न्याय” का चिन्ह को दर्शाता है।
• परमेश्वर अपने पुत्र यीशु पर दया किया कि सूरज की रोशनी से यीशु का मुख ढाँका रहे।
• इस समय के दौरान अर्थात् 3 घण्टे तक (12Noon to 3PM) परमेश्वर से यीशु का कोई सम्पर्क नही रहा।
• यीशु मसीह पहले ही अपने पकड़वानेवालों से यह कह चुका था कि “ यह तुम्हारी घड़ी है, और अंधकार का अधिकार है।” [Lk22:53 का दूसरा खण्ड में]
•दूसरी प्रतीकात्मक घटना थी – मन्दिर के परदे का दो भागों में फटना जोकि “परमपवित्र स्थान” को मन्दिर के शेष भाग से अलग करता था। परदा लोगों को उस स्थान से विभाजित करता था, जहां परमेश्वर ने अपनी उपस्थिति को रखा था।
•यरूशलेम मन्दिर का परदा बीच से दो टुकड़ा होने का रहस्य –
• प्राचीन काल में,परमेश्वर ने मूसा को सीनै पर्वत पर व्यवस्था दी थी, परमेश्वर ने उसे मिलापवाला तम्बू बनाने के निर्देश भी दिए थे (निर्ग.25:1-27:21; 36:1-38:3)। यह पवित्र तम्बू इस्राएलियों के लिये आराधना विधि का एक मुख्य केन्द्र स्थान था, जहां लोग परमेश्वर के लिये भेंट और बलिदान लाते थे।
I.तम्बू का पहला भाग अर्थात् “पवित्र स्थान” –
आम लोग और याजक तम्बू के पहले भाग में एकत्रित हो सकते थे। याजक मेज पर रखी भेंट की रोटियों को लोगों के प्रायश्चित के निमित्त अवश्य ही खाना होता था।
जिसमें ये सामग्रियां रखी रहती थी –
1.दीवट,
2.मेज़, और
3.भेंट की रोटियां।
[निर्ग.16:2-26,Nu11:4-9]
II.तम्बू का दूसरा भाग अर्थात् “परमपवित्र स्थान” [लैव्य.16; इब्रा.9:7] -
• इस्राएली आराधना के लिये जिस पवित्र तम्बू का प्रयोग करते थे (निर्ग.25:27)। उसमें एक परदा “पवित्र स्थान” को उस अन्दरूनी स्थान से अलग करता है जिसे “परमपवित्र स्थान” कहा जाता था।“परमपवित्र स्थान” में मात्र महायाजक ही वर्ष में एक बार लोगों के पापों के लिये चढ़ाए गए बलिदान के लहू को लेकर प्रवेश कर सकता था। (लैव्य.16;इब्रा.9:7)
•सोने से मढ़ा हुआ पवित्र सन्दूक (वाचा का सन्दूक) परमपवित्र स्थान में रखा जाता था।
1.सोने की धूपदानी(सुगन्ध-द्रव्य)।
2.सोने से मढ़ा हुआ वाचा का सन्दूक।
•सन्दूक में तीन वस्तुएं थीं ---
१.मन्ना से भरा हुआ सोने का मर्तबान-
[निर्ग.25:16;16:1-36,गिनती11:7,व्य.वि.8:3]
२.हारून की छड़ी जिसमें फूल-फल आ गये थे –
[निर्ग.16:1-50,गिन.11:7,व्य.वि.8:3,गिन.17:1-11, प्रेरितो20:28, फिलि 2:14, इब्रा.13:17]
३.वाचा की पट्टियां –
पत्थर की पट्टियों पर लिखी हुई दस आज्ञाएं निर्ग.20:1-17;व्य.वि.5:6-21;यूह.14:15।
•लूका 23:45 - और मंदिर का परदा बीच से दो टुकड़ा हो गया-
•मत्ती 27:51- और देखो मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकड़े हो गया: और धरती डोल गई और चटानें तड़क गईं।
• यह इस सत्य का प्रतीक था कि अब यीशु की मृत्यु के कारण, लोगों को परमेश्वर के पास पहुंचने का मार्ग स्वतंत्र रूप से खुल गया क्योंकि अब उन्हें बलिदानात्मक प्रणाली से होकर गुजरकर नहीं जाना था।
• इब्रानियों का लेखक, एक पवित्र तम्बू के पहले भाग – पवित्र स्थान को “पहली वाचा” कहता है (8:7;9:1) जो परमेश्वर ने अपने लोगों से बांधी थी। परन्तु इब्रानियों के अनुसार, परमेश्वर ने “एक नई वाचा अर्थात् अनुग्रह का वाचा” बांधी जो यीशु मसीह, सच्चा महायाजक के कार्यों तथा बलिदान पर आधारित थी। यीशु को पवित्र तम्बू में पाप के लिये बलिदान चढ़ाने को जाने की आवश्यकता नहीं थी। इसके बदले, वह सीधे स्वर्ग में परमेश्वर की उपस्थिति में यीशु ने अपना लहू बहाकर सभी मनुष्यों के पापों को सदैव के लिये एक ही बार में अपना प्राण न्यौछावर कर दूर कर दिया। (इब्रा.9:11-28)
•इब्रानियों 10:19-20 -
[19]सो हे भाइयो, जब कि हमें यीशु के लोहू के द्वारा उस नए और जीवते मार्ग से पवित्र स्थान में प्रवेश करने का हियाव हो गया है।
[20]जो उस ने परदे अर्थात अपने शरीर में से होकर, हमारे लिये अभिषेक किया है।
यद्यपि यह परमपवित्र स्थान परदा के भीतरी भाग में था (बाद में यरूशलेम मन्दिर में), लेखक कहता है कि अब यह “परमपवित्र स्थान” सच्चा तम्बू अर्थात् स्वर्ग में है।
•7वाँ क्रूस-वाणी पर चिन्तन-मनन –
•करीबन 6 घण्टे तक यीशु मसीह क्रूस पर मृत्यु -शय्या में पड़ा रहा और करीबन 3 बजे अपरान्ह में ( 3रा पहर ) क्रूस पर अंतिम वाणी अर्थात् 7वां क्रूस-वाणी है ---
•लूका 23:46– और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा; “हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं:” और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।
• और यीशु ने बड़े शब्द अर्थात् ऊंचे स्वर से क्यों कहा ?
इसके दो मुख्य कारण है –
I.क्योंकि उनके दुश्मनों व विरोधियों यह मालूम हो जाए कि उसने मृत्यु से विजय पा लिया है और अपने सभी लोगों के लिए अनुग्रह और दया का ईनाम मोल ले लिया है।जिसे परमेश्वर पिता ने जगत की सृष्टि के पूर्व से ही चुन लिया है। और अन्धकार की शक्तियों की सभी कोशिशों को नष्ट व खत्म कर दिया कि मनुष्य पाप से मन फिराव के बाद परमेश्वर से मेल – मिलाप कर लें।
II.क्योंकि उसके चेले और लोगों को यह मालूम हो जाए कि प्रभु यीशु स्वेच्छा से अपना प्राण उनकी अपनी भेड़ों के लिए अर्पित कर देता है कि नरक की यातना व अनन्त मृत्यु से छुटकारा मिले। प्रभु यीशु मसीह क्रूस पर हमारे सारे पापों की मजदूरी का भुगतान कर दिया है।
•हे पिता, से तात्पर्य---
सामान्यत:”हे पिता” का सम्बोधन उसके पुत्र के द्वारा किया जाता है जिसके मध्य में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। पिता और पुत्र का सम्बन्ध – आज्ञा और आज्ञाकारिता का प्रतीक है। क्रूस पर यीशु जो पुत्र परमेश्वर है और अपने पिता परमेश्वर से “हे पिता” सम्बोधित कर प्रार्थना करता है कि “मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं।”
• परमेश्वर दयालु पिता है । यीशु ने परमेश्वर को मनुष्यों का पिता माना - मत्ती5:45-48; 6:8-9; 23:9, लूका12:32, यूह.20:17.
• पौलुस ने भी ईश्वर को सबों का पिता माना- इफि.4:6, 2कुरि.6:18, गला.4:6.
• यीशु (पुत्र) और परमेश्वर (पिता) का विशिष्ट सम्बन्ध देखा जा सकता है। यीशु ने बारम्बार इस सम्बन्ध का उल्लेख किया है; विशेष रूप से यूहन्ना के सुसमाचार में, जैसे ---
•मैं पिता के यहां से आया हूं,अब मैं संसार को छोड़कर पिता के पास जा रहा हूं -यूह.16:28.
•जो कुछ पिता का है,वह मेरा है –यूह.16:15.
• पिता मुझ में है और मैं पिता में हूं –यूह.10:38;14:10-11.
• मैं और पिता एक हैं –यूह.10:30.
• यहूदियों ने यीशु को इसलिए प्राणदण्ड दिलाया कि उन्होंने परमेश्वर का पुत्र होने का दावा किया – यूह.19:7.
और मनुष्य होकर भी अपने को ईश्वर माना – यूह.10:30.
• लगभग 3 घण्टे तक पिता परमेश्वर से संबंध-विच्छेद रहने के कारण तीसरे पहर के अन्तिम क्षणों में यीशु, पिता परमेश्वर को पुकारकर सम्पर्क स्थापित करता है और परमेश्वर के साथ पुनः मेल मिलाप का सम्बन्ध जुड़ गया।
•परमेश्वर, यीशु मसीह का पिता है –
यूह 1:18; 5:36, रोमि.15:6, 2कुरि.1:3.
यीशु तो अनन्तकाल से पिता परमेश्वर का पुत्र है। पिता और पुत्र दोनों का अस्तित्व अनन्तकाल से है।
•पिता ने अपने पुत्र को इस जगत का उध्दारकर्ता होने के लिए भेज दिया और इस महाकार्य के लिए पुत्र के आज्ञाकारी होने का अर्थ था उसे दुख उठाकर मृत्यु सहनी होगी -यूह.3:14-16;12:27, रोमि.5:10;8:32, 1यूह.:4:9,10,14.
(a)पुत्र ने इस कार्य को मृत्यु तक आज्ञाकारी रहकर पूरा किया- यूह.17:4.
(b)और परमेश्वर अपने पुत्र के इस कार्य से पूर्णतः सन्तुष्ट हुआ और उसने इसकी घोषणा उसे मृत्यु से जिलाकर की – रोमि.1:4.
(c)क्रूस पर पुत्र की विजय-शक्ति से पाप के अन्तिम चिन्ह मिटा दिया गया और पुत्र अपने पिता के हाथ में सब कुछ सौंप देता है और परमेश्वर का आनन्द पूरा हो गया। फिर परमेश्वर सब के लिए सब कुछ हो गया- 1कुरि.15:24,28.
•द्वितीय – संत लूका ने लिखा कि यीशु की मृत्यु उसकी इच्छा के अनुसार हुई। अंतिम सांस लेते हुए उसने स्वेच्छा से अपने प्राण त्याग दिए।
• मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ। Into your hands, I commit my spirit.
•आत्मा (Spirit)-
•वह चेतन(Animate) और अपार्थिव सत्त्व (Unearthly, Spiritual Lords) से है जिसका स्वभावतः किसी भी शरीर से सम्बन्ध नहीं होता ।
•आत्मा नाम की उपाधियाँ –
(a)Hebrews => Ruah.
(b)Wind or Breath.
(c)Greek => Pneuma.
I.परमेश्वर का यीशु से प्रेम का कारण –
यूह.10:17-18-
17 पिता इसलिये मुझ से प्रेम रखता है, कि मैं अपना प्राण देता हूं, कि उसे फिर ले लूं।
18 कोई उसे मुझ से छीनता नहीं, वरन मैं उसे आप ही देता हूं: मुझे उसके देने का अधिकार है, और उसे फिर लेने का भी अधिकार है: यह आज्ञा मेरे पिता से मुझे मिली है॥
II.यीशु ने नबियों /भविष्यद्वक्ताओं के वचन को पूरा किया –
•यीशु अपने सम्पूर्ण जीवन के साथ-साथ उसने दुःखभोग और क्रूसीकरण को पुराना नियम के वचनों के अनुसार पूरा किया।
•भ.सं.31:5-
5 मैं अपनी आत्मा को तेरे ही हाथ में सौंप देता हूं; हे यहोवा, हे सत्यवादी ईश्वर, तू ने मुझे मोल लेकर मुक्त किया है।
III.यीशु पर विश्वास द्वारा पापमुक्ति – (Redemption in Christ Jesus )
•रोमि.3:24-25- 24 .परमेश्वर की कृपा से सबों को मुफ्त में पाप-मुक्ति का वरदान मिला है; क्योंकि यीशु मसीह ने सबों का उध्दार किया है ।
25 . परमेश्वर ने चाहा कि यीशु अपना रक्त बहाकर पाप का प्रायश्चित्त करें और हम विश्वास द्वारा उसका फल प्राप्त करें । परमेश्वर ने इस प्रकार अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण दिया; क्योंकि उसने अपनी सहनशीलता के अनुरूप पिछले युगों के पापों का अनदेखा कर दिया था ।
IV.यीशु का सबसे बड़ा प्रेम (Greater Love)- •यूह.15:13- 13. अपने मित्रों के लिए अपना प्राण अर्पित करने से बड़ा किसी का प्रेम नहीं ।
V. सेवाभाव का महत्त्व –
बहुतों के उध्दार(A Ransom for Many) –
•मत्ती 20:28 – क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उध्दार के लिये अपने प्राण देने आया है ।
•1पत.2:23 – वह गाली सुन कर गाली नहीं देता था, और दुख उठा कर किसी को भी धमकी नहीं देता था, पर अपने आप को सच्चे न्यायी के हाथ में सौपता था।
VI. परमेश्वर से मेल-मिलाप का सेवा-कार्य (Ministry of Reconciliation )-
•2कुरि.5:18-19-
18. परमेश्वर ने यह सब किया है – उसने मसीह के द्वारा अपने से हमारा मेल कराया और इस मेल-मिलाप का सेवा-कार्य हम प्रेरित को सौंपा है ।
19.इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर ने मनुष्यों के अपराध उनके खर्चे में न लिखकर मसीह के द्वारा अपने से संसार का मेल कराया और इस मेल-मिलाप के संदेश का प्रचार हमें सौंपा है।
•रोमि.5:10-11-
10.हम शत्रु ही थे जब परमेश्वर के साथ हमारा मेल उसके पुत्र की मृत्यु द्वारा हो गया था और उसके साथ मेल हो जाने के बाद उसके पुत्र के जीवन द्वारा निश्चित ही हमारा उद्धार होगा ।
11 . इतना ही नहीं, अब तो हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर से हमारा मेल हो गया है; इसलिए हम उन्हीं के द्वारा परमेश्वर पर भरोसा रखकर आनन्दित हैं ।
VII.भ्रात-प्रेम की आज्ञा –
•यूह.15:12,14-
12.यह मेरी आज्ञा है – जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया है, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे से प्यार करो।
14 . यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो तो तुम मेरे मित्र हो।
मसीह का आदर्श बनें (Marks of the True Christian)
•रोमि.12:16-18-
16.आपस में मेल मिलाप का भाव बनाये रखें। घमण्डी न बनें, बल्कि दीन-दुखियों से मिलते-जुलते रहें । अपने आपको बुध्दिमान न समझें।
17.बुराई के बदले बुराई नहीं करें।दुनिया की दृष्टि में अच्छा आचरण करने का ध्यान रखें ।
18. जहाँ तक हो सके, अपनी ओर से सबों के साथ मेल-मिलाप बनाये रखें ।
एक स्वर में परमेश्वर की स्तुति करना (One Voice Glorify the God) –
•रोमि.15:5-6-
5.परमेश्वर ही धैर्य तथा सान्त्वना का स्त्रोत है । वह आप लोगों को यह वरदान दे कि आप मसीह की शिक्षा के अनुसार आपस में मेल-मिलाप बनाये रखें ।
6.जिससे आप लोग एकचित होकर एक स्वर से हमारे प्रभु यीशु मसीह के परमेश्वर तथा पिता की स्तुति करते हैं ।
VIII. नवीन मानवता की एकता (One in Christ)–
•Eph2:12-16-
12. आप याद रखें कि पहले आप मसीह से अलग थे, इस्राएल के समुदाय से बाहर थे, विधान की प्रतिज्ञाओं से अपरिचित और इस संसार में आशा और परमेश्वर से रहित थे।
13. आप लोग पहले दूर थे, किन्तु यीशु मसीह से संयुक्त होकर आप अब मसीह के रक्त द्वारा निकट आ गये हैं ।
14. क्योंकि वही हमारी शान्ति है ।उन्होंने यहूदियों और गैर यहूदियों को एक कर दिया है । दोनों में जो शत्रुता की दीवार थी । उसे उन्होंने गिरा दिया है।
15. और अपनी मृत्यु द्वारा विधि- निषेधों की संहिता को रद्द कर दिया । इस प्रकार उन्होंने यहूदियों तथा गैर यहूदियों को अपने से मिलाकर एक नयी मानवता की सृष्टि की और शान्ति स्थापित की है।
16. उन्होंने क्रूस द्वारा दोनों का एक ही शरीर में परमेश्वर के साथ मेल कराया और इस प्रकार शत्रुता को नष्ट कर दिया ।
मसीही एकता (Unity in the Body of Christ)-
•इफि.4:2-6-
2. आप पूर्ण रूप से विनम्र, सौम्य तथा सहनशील बनें। प्रेम से एक दूसरे को सहन करें।
3. और शान्ति के सूत्र में बँधकर उस एकता को, जिसे पवित्र आत्मा प्रदान करता है, बनाये रखने का प्रयत्न करते रहें ।
4. एक ही शरीर, एक ही आत्मा और एक ही आशा, जिसके द्वारा आप बुलाये गये हैं ।
5.एक ही प्रभु है, एक ही विश्वास और एक ही बपतिस्मा,
6. एक ही परमेश्वर है, जो सबों का पिता, सब के ऊपर, सब के साथ और सब में व्याप्त है ।
IX . मसीह की महिमा (The Supermacy of Christ)-
•कुलु.1:16,20-
16. क्योंकि उन्हीं के द्वारा सब कुछ की सृष्टि हुई है।सब कुछ --- चाहे वह स्वर्ग में हो या पृथ्वी पर, चाहे दृश्य या अदृश्य और स्वर्गदूतों की श्रेणियाँ भी --- सब कुछ उनके द्वारा उनके लिए सृष्ट किया गया है ।
20. मसीह ने क्रूस पर जो रक्त बहाया, उसके द्वारा परमेश्वर ने शान्ति की स्थापना की । इस तरह परमेश्वर ने उन्हीं के द्वारा सब कुछ का चाहे वह पृथ्वी पर हों या स्वर्ग में, अपने से मेल कराया।
X .अविश्वासी नाजरेत (The Rejection of Jesus at Nazareth)
•Lk4:18-19-
18 प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने कंगालों को मेरा अभिषेक किया है।उसने मुझे भेजा है जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ , बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ , दलितों को स्वतंत्र करूँ ।
19 और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूं।
-(यशायाह ग्रंथ के प्रस्तुत उदाहरण में जयंती-वर्ष(मत्ती25:10-17) का संकेत है । वह प्रत्येक 50 वें वर्ष में पड़ता था । उस वर्ष पुराने ऋण माफ हो जाते थे।पैतृक भू-सम्पत्ति लौटा दी जाती थी और दास मुक्त हो जाते थे। वह वर्ष यहाँ पर यीशु मसीह द्वारा लायी हुई मुक्ति का प्रतीक माना गया है )
हम कैसे जानें कि यीशु ने अपना जीवन वास्तव में अर्पित किया।आइए, हम निम्न 06 उदाहरण देखें –
I.यीशु की गिरफ्तारी (The Arrest of Jesus )-
•यूह.18:4-9-
4 तब यीशु उन सब बातों को जो उस पर आनेवाली थीं, जानकर निकला, और उन से कहने लगा, किसे ढूंढ़ते हो?
5 उन्होंने उसको उत्तर दिया, “यीशु नासरी को।“ यीशु ने उनसे कहा, “ मैं हूँ “। उसका पकड़वानेवाला यहूदा भी उनके साथ खड़ा था।
6 उसके यह कहते ही, कि “मैं हूँ ,” वे पीछे हटकर भूमि पर गिर पड़े।
7 यीशु ने उनसे फिर पूछा,”किसे ढूंढ़ते हो ? वे बोले, “यीशु नासरी को”।
8.इस पर यीशु ने कहा,” मैं तुम लोगों से कह चुका हूँ कि मैं वही हूँ। यदि तुम मुझे ढूँढ़ते हो, तो इन्हें जाने दो।“
9 यह इसलिये हुआ कि उनका यह कथन पूरा हो जाये
•तूने मुझको जिन्हें सौंपा , मैंने उनमें से एक का भी सर्वनाश नहीं होने दिया ।
• किद्रोन नाले के पार गतसमनी की बारी में यीशु की गिरफ्तारी के समय अपने चेलों के साथ रहे थे।
• यीशु उनके साथ चल पड़ा क्योंकि भूमि पर वे शक्तिहीन हो गये थे।
II.भाले से बेधा गया(Jesus’ Side is Pierced)-
•यूह.19:33-37-
33. जब सैनिकों ने यीशु के पास आकर देखा कि वह मर चुके हैं, तो उन्होंने उनकी टांगें नहीं तोड़ीं ;
34. लेकिन एक सैनिक ने उनकी बगल में भाला मारा और उसमें से तुरन्त रक्त और जल बह निकला।
35 जिसने यह देखा है , वही इसका साक्ष्य देता है और उसका साक्ष्य सच्चा है। वह जानता है कि वह सच बोलता है,जिससे आप लोग भी विश्वास करें ।
36 यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाए—उसकी एक भी हड्डी नहीं तोड़ी जाएगी;
37 फिर धर्मग्रंथ का एक दूसरा कथन इस प्रकार है – उन्होंने जिसे छेदा, वे उसी की ओर देखेंगे ।
III.मैं प्यासा हूँ –
•यूह.19:28 - तब यीशु ने यह जानकर कि अब सब कुछ पूरा हो चुका है, धर्मग्रंथ का लेख पूरा करने के उद्देश्य से कहा,“ मैं प्यासा हूँ ”।
•भ.सं.69:21- लोगों ने मेरे खाने के लिये इन्द्रायन दिया और मेरी प्यास बुझाने के लिये मुझे सिरका पिलाया ।
IV.यीशु ने सिर झुकाकर प्राण त्याग दिया –
•यूह.19:30 - यीशु ने खट्टी अंगूरी चख कर कहा,” सब पूरा हो चुका है “ और सिर झुकाकर प्राण त्याग दिये।
• इसका तात्पर्य यह है कि यीशु का सिर क्रूस पर 06 घण्टे तक सीधा खड़ा था।उसने जान-बूझकर (Consciously) शान्ति से(Calmly) और आदर से (Revently) अपना सिर झुका दिया ।
V. यीशु अपनी आत्मा पिता को सौंप दिया-
•लूका23:46 - और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा; हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं: और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।
VI.यीशु द्वारा प्राण छोड़ना -
•06 घण्टों में यीशु का क्रूस मृत्यु होना प्राकृतिक प्रवृत्ति का नहीं था क्योंकि यीशु अपना आत्मा परमेश्वर पिता को सौंप देता है ।
•दो अपराधी, यीशु के मृत्यु के बाद तक जीवित थे इसलिए उनकी हड्डी तोड़ी गयी।
•मनुष्यों का क्रूसीकरण पर 10 दिनों तक बच पाना व जीवित रहने की संभावना हो सकता है ।
•इसलिए यीशु अपना आत्मा सौंप देता है ।
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•सूबेदार ने यीशु को धर्मी माना–
एक रोमी सूबेदार ने भी कहा कि यीशु एक धर्मी मनुष्य था अर्थात् निर्दोष था, निष्कलंक था। उसने भी परमेश्वर की प्रशंसा की जैसे अनेकों ने लूका रचित सुसमाचार में किया है।
लूका 23:47-
[47]सूबेदार ने, जो कुछ हुआ था देखकर, परमेश्वर की बड़ाई की, और कहा; निश्चय यह मनुष्य धर्मी था।
• यीशु की मृत्यु का विलाप –
जिन लोगों ने यीशु की मृत्यु को देखा उन सबों ने विलाप किया।
लूका 23:48,49 –
[48]और भीड़ जो यह देखने को इकट्ठी हुई भी, इस घटना को, देखकर छाती- पीटती हुई लौट गई।
[49]और उसके सब जान पहचान, और जो स्त्रियां गलील से उसके साथ आई थीं, दूर खड़ी हुई यह सब देख रही थीं।
•अनन्त सुरक्षा (Eternal Security)-
यीशु का क्रूस-मृत्यु के बाद जो उसके पीछे, उसके सिध्दान्तों पर चलता है उन्हें अनन्त सुरक्षा का आशीर्वाद व आशीष देता है –
1.कभी न छोड़ने या त्यागने का वाचा -
•पिता, जिन्हें मुझको सौंप देता है, वे सब मेरे पास आयेंगे और जो मेरे पास आता है, मैं उसे कभी नहीं ठुकराऊँगा। [यूह.6:37]
2.सामर्थी हाथ से सुरक्षा का आश्वासन -
•मेरे पिता ने मुझे उन्हें दिया है; वह सबसे महान है। कोई भी उन्हें पिता से नहीं छीन सकता । [यूह.10:29]
3.जीने का आरज़ू(A Living Hope) -
•आपके विश्वास के कारण परमेश्वर का सामर्थ्य आपको उस मुक्ति के लिए सुरक्षित रखता है, जो अभी से प्रस्तुत है और समय के अन्त में प्रगट होने वाली है। [1पत.1:5]
4.मसीह में अनन्त जीवन –
•क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु यीशु मसीह में अनन्त जीवन है। [रोमि.6:23]
यीशु ने मानव जाति के प्रतिनिधि के रूप में अपने प्राण अर्पित कर उसके पापों का प्रायश्चित किया।
प्रभु यीशु क्रूस पर अपने अनमोल लोहू की अंतिम बूँद बहाकर अपनी जान न्योछावर कर दिया , ताकि समस्त मानव जाति का उध्दार हो।
•प्रेम से बड़ी और कोई दूसरी चीज़ नहीं है। अपने जीवन-काल में यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था ।
•यूह.15:13-“अपने मित्रों के लिए अपना प्राण अर्पित करने से बड़ा और किसी का प्रेम नहीं।“
•जैसा कि पिता परमेश्वर की पवित्र इच्छा व मुक्ति योजना थी –“ बिना लोहू बहाये पापों के अपराधों की क्षमा नहीं मिलती।“
•इफि.5:2- और प्रेम में चलो; जैसे मसीह ने भी तुम से प्रेम किया; और हमारे लिये अपने आप को सुखदायक सुगन्ध के लिये परमेश्वर के आगे भेंट करके बलिदान कर दिया। •इब्रा.9:12-14-
12 और बकरों और बछड़ों के लोहू के द्वारा नहीं, पर अपने ही लोहू के द्वारा एक ही बार पवित्र स्थान में प्रवेश किया, और अनन्त छुटकारा प्राप्त किया।
13 क्योंकि जब बकरों और बैलों का लोहू और कलोर की राख अपवित्र लोगों पर छिड़के जाने से शरीर की शुद्धता के लिये पवित्र करती है।
14 तो मसीह का लोहू जिस ने अपने आप को सनातन आत्मा के द्वारा परमेश्वर के साम्हने निर्दोष चढ़ाया, तुम्हारे विवेक को मरे हुए कामों से क्यों न शुद्ध करेगा, ताकि तुम जीवते परमेश्वर की सेवा करो।
•मलाकी 4:2- परन्तु तुम्हारे लिये जो मेरे नाम का भय मानते हो, धर्म का सूर्य उदय होगा, और उसकी किरणों के द्वारा तुम चंगे हो जाओगे; और तुम निकल कर पाले हुए बछड़ों की नाईं कूदोगे और फांदोगे।
•हमारा उध्दार, मक्ति, मोक्ष – यीशु मसीह के जन्म के द्वारा नही है और न ही यह उसके जीवन के द्वारा है परन्तु यह उसकी मृत्यु के द्वारा है।
•अदन-वाटिका में आदम द्वारा परमेश्वर के आज्ञा का उल्लघंन करके पाप किया। परिणामत: इसी आदि पाप के कारण हम मनुष्यों का परमेश्वर से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया था, किन्तु यीशु मसीह ने परमेश्वर के मुक्ति (उद्धार )की योजना के कार्य को मृत्यु तक आज्ञाकारी रहकर पूरा किया।
•यीशु का क्रूस बलिदान एक ऐसा अद्वितीय और महान कार्य था। जिसके द्वारा परमेश्वर, सच्चे पश्चातापियों को पाप की दण्ड से छुटकारा दे सकता है । यीशु ने पापियों को पाप की शक्ति और मृत्यु से छुटकारा दिलाने के लिये अपना लहू बहाकर मूल्य चुकाया और परमेश्वर से हमारा संबंध पुनः जुड़ गया और दुबारा मेल-मिलाप हो गया ।