|| यीशु ने कहा, "देखो, मैं शीघ्र आनेवाला हूँ। मेरा पुरस्कार मेरे पास है और मैं प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों का प्रतिफल दूँगा। मैं अल्फा और ओमेगा; प्रथम और अन्तिम; आदि और अन्त हूँ।" Revelation 22:12-13     
Home

My Profile

Topics

Words Meaning

Promises of God

Images

Songs

Videos

Feed Back

Contact Us

Visitor Statistics
» 1 Online
» 11 Today
» 2 Yesterday
» 13 Week
» 137 Month
» 5628 Year
» 41442 Total
Record: 15396 (02.03.2019)

पवित्र जीवन जीने की बुलाहट।


 

पवित्र जीवन जीने की बुलाहट
•08.04.2021• 1पतरस 1:13-25.
[13]इस कारण अपनी अपनी बुद्धि की कमर बान्धकर, और सचेत रहकर उस अनुग्रह की पूरी आशा रखो, जो यीशु मसीह के प्रगट होने के समय तुम्हें मिलने वाला है।
[14]और आज्ञाकारी बालकों की नाईं अपनी अज्ञानता के समय की पुरानी अभिलाषाओं के सदृश न बनो।
[15]पर जैसा तुम्हारा बुलाने वाला पवित्र है, वैसे ही तुम भी अपने सारे चाल चलन में पवित्र बनो।
[16]क्योंकि लिखा है, कि पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूं।
[17]और जब कि तुम, हे पिता, कह कर उस से प्रार्थना करते हो, जो बिना पक्षपात हर एक के काम के अनुसार न्याय करता है, तो अपने परदेशी होने का समय भय से बिताओ।
[18]क्योंकि तुम जानते हो, कि तुम्हारा निकम्मा चाल-चलन जो बाप दादों से चला आता है उस से तुम्हारा छुटकारा चान्दी सोने अर्थात नाशमान वस्तुओं के द्वारा नहीं हुआ।
[19]पर निर्दोष और निष्कलंक मेम्ने अर्थात मसीह के बहुमूल्य लोहू के द्वारा हुआ।
[20]उसका ज्ञान तो जगत की उत्पत्ति के पहिले ही से जाना गया था, पर अब इस अन्तिम युग में तुम्हारे लिये प्रगट हुआ।
[21]जो उसके द्वारा उस परमेश्वर पर विश्वास करते हो, जिस ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, और महिमा दी; कि तुम्हारा विश्वास और आशा परमेश्वर पर हो।
[22]सो जब कि तुम ने भाईचारे की निष्कपट प्रीति के निमित्त सत्य के मानने से अपने मनों को पवित्र किया है, तो तन मन लगा कर एक दूसरे से अधिक प्रेम रखो।
[23]क्योंकि तुम ने नाशमान नहीं पर अविनाशी बीज से परमेश्वर के जीवते और सदा ठहरने वाले वचन के द्वारा नया जन्म पाया है।
[24]क्योंकि हर एक प्राणी घास की नाईं है, और उस की सारी शोभा घास के फूल की नाईं है: घास सूख जाती है, और फूल झड़ जाता है।
[25]परन्तु प्रभु का वचन युगानुयुग स्थिर रहेगा: और यह ही सुसमाचार का वचन है जो तुम्हें सुनाया गया था।


पवित्र जीवन जीने की बुलाहट
I.पवित्रता[Holiness] -1पतरस1:13-16 के सन्दर्भ में -
“इस कारण” अर्थात् ज्योति के समान मुक्ति के विषय में पतरस बतलाता है कि विश्वासवासियों को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए आगे बढ़ना आवश्यक है –
यह पतरस के जमाने की प्राचीन प्रथा है जब पुरूष लंबे लंबे चोगे पहना करते थे – जो जल्दी आगे बढ़ने या अनवरत कार्य करने में बाधक होता था। वे अपने कमर पर चैड़े पट्टे बांधा करते थे और जब उन्हे कोई कार्य करना होता, तो वे अपने कमर को कसा करते और अपने कपड़े के छोर को पट्टे में फंसाकर छोटा कर लिया करते थे।यहां पर पतरस का यह शब्द कार्य करने के लिए एक गंभीर बुलाहट के संबंध में है। एक स्मरणसूचक बात है कि जब हम अपना ध्यान खो देते है तो हमारे लिए गंभीर चिंतन करने का समय है।
अपने विचारों में अनुशासित हो जाओ। यह एक काव्य-अलंकार है,जो पूर्वीय लोगों की उस किय्रा पर आधारित है जिसमें वे अपनी लम्बी पोशाकों को समेटकर बांधते हैं ताकि वे काम करने में बाधक न हों।
शैतान का हमारे मन पर आक्रमण करने का यह एक तरीका है जो हमारे विचारों को भटकाता रहता है। यह एक मानसिक आक्रमण है। यदि हम अपने मन को महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अनुशासित नहीं करते हैं तो शैतान उसे लक्ष्यहीन कर अन्य विचारों में भटकाता रहेगा।
यदि शैतान हमसे बाईबल पढ़ने और कलीसिया में परमेश्वर के वचन को सुनने के फायदे को चुरा सकता है, तो वह हमारे मन के युद्ध में एक बहुत बड़े मुठभेड़ को जीत लिया है। इसलिए पतरस हमसे ‘‘बुद्धि की कमर कसने’’ के लिए कहता है। अपने भटकते मन का सामना करने और महत्वपूर्ण बातों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अपने को अनुशासन में रखना नितांत ही आवश्यक है।
परमेश्वर का उद्धार मानवजाति को बचाने के उनके कार्य को संदर्भित करता है। 


व्यवस्था के युग में, परमेश्वर ने नियम और आज्ञाएँ जारी कीं, जो लोगों को अपने जीवन का नेतृत्व करने के लिए मार्गदर्शन देते हैं, जिससे उन्हें पता चल सके कि पाप क्या है। 
अनुग्रह के युग में, परमेश्वर ने मनुष्य के पापों को क्षमा करते हुए छुटकारे का कार्य किया। 
अंत के दिनों में, परमेश्वर ने उन लोगों के लिए भी उद्धार का मार्ग तैयार कर लिया है।


*संसार के सदृश न बनो-
रोमियो 12:2-
[2]और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो॥
15 पर जैसा तुम्हारा बुलानेवाला पवित्र है, वैसे ही तुम भी अपने सारे चाल-चलन में पवित्र बनो।


*पवित्र बनना –(1पतरस1:15,16)
पवित्र बनना अर्थात् “ पाप से और परमेश्वर के लिए अलग होना “ और यह परमेश्वर की सिद्ध पवित्रता से प्रेरित होता है।
16 क्योंकि लिखा है, “पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ*।” (लैव्य.11:44, लैव्य.19:2, लैव्य. 20:7) 


पुराना नियम के अनुसार पवित्रीकरण की रीतियां -
इस्राएल का परमेश्वर पवित्र है इसलिए राष्ट्र को भी पवित्र होना चाहिए‌। -लैव्य.11:44-45.


अशुद्धता [Uncleanness] –
पवित्रता पर लागू होने वाले शब्द शुद्धता के नियम लोगों के जीवन के प्रत्येक भाग से सम्बन्धित थे --  इसमें प्रतिदिन का भोजन और शारीरिक शुद्धता भी सम्मिलित थी।जो व्यक्ति इन नियमों में से किसी एक का भी उल्लंघन करता वह दूषित या अशुद्ध समझा जाता था और धार्मिक क्रियाओं में भाग लेने से पहिले रीति के अनुसार शुध्द होना पड़ता था – निर्ग.19:10-15, गिन.19:20-22, यूह.11:55.
योजकों का एक कर्तव्य यह था कि वे लोगों को पवित्र तथा अपवित्र में अन्तर करना बतलाना होता था – लैव्य.10:10, यहेज.44:23.


पशुओं तथा वस्तुओं की अशुद्धता –
• किन पशुओं का मांस खाना हानिकारक है और किन पशुओं का मांस नहीं खाना चाहिए- लैव्य.11:1-23;11:46,47.
• जो वस्तुएं धोने से शुद्ध हो सकती थी उन्हें धोते थे जैसे – वस्त्र। और जो वस्तुएं धोने से शुद्ध नहीं हो सकती थी उन्हें नष्ट कर दिया जाता था जैसे – मिट्टी के पात्र – लैव्य.11:29-40;15:8-11.


•व्यक्तियों के अशुद्धता –-
मृतक व्यक्ति के शव के स्पर्श से व्यक्ति अशुद्ध हो जाता था और उसे उस समय तक समाज से अलग रहना होता था जब तक कि वह स्नान करके और वस्त्रों को धोकर शुद्ध नहीं जाता था।
पशु की मृत देह को स्पर्श करने के कारण व्यक्ति को 01दिन के लिए समाज से अलग रहना पड़ता था।
मनुष्य के शव को स्पर्श करने के कारण व्यक्ति को 07दिन के लिए समाज से अलग रहना पड़ता था -लैव्य.11:24-25,  गिन.19:11-19.
हत्यारा की मृत्यु से ही अशुद्धता दूर होती थी, हत्यारा के नहीं मिलने की दशा में उसके स्थान पर एक पशु को विधिवत रूप से वध किया जाता था - व्य.वि.21:1-9.
मूर्तिपूजा करने वालों को देश से बाहर करके ही ऐसी अशुद्धता को दूर किया जा सकता था – एज्रा 9:10-14,यिर्म.2:7;16:18, यहेज.14:11, 2राजा17:16-18;21:11-15.


नया नियम के अनुसार पवित्रीकरण की रीतियां –
यीशु के समय तक यहूदियों ने शुद्धि की व्यवस्था को अत्यधिक विकसित कर लिया था - मर.7:1-4, यूह.2:6;3:25;28:28.
यीशु ने बतलाया कि इस प्रकार की परम्पराओं से व्यवस्था के प्रति भ्रान्ति उत्पन्न होती है और लोग उन महत्वपूर्ण बातों से हट जाते हैं जो व्यवस्था के अनुसार अधिक आवश्यक है – मर.7:5-9.
वास्तविक अशुद्धता इससे नहीं होती कि लोग क्या और कैसे करते हैं परन्तु यह अशुद्धता विचारों, शब्दों और कार्यों से होती है। परमेश्वर की दृष्टि में भोजन करने से मनुष्य अशुद्ध नहीं होता वरन् उन बातों से अशुद्ध होता है जो उसमें से निकलती है -मर.7:14-23, तीतुस1:15, याकूब4:8.
यह अशुद्धता केवल यीशु मसीह के लोहू के द्वारा ही शुद्ध हो सकती है। उसकी बलिदान रूपी मृत्यु ने पाप के मूल कारण से निपट कर उन सब बातों को पूरा कर दिया जो एक इस्राएली संस्कार पूरा नहीं कर सकते थे – इब्रा.9:13-14;10:22.


पवित्रता [Holiness] –
“पवित्रता” का अर्थ साधारणतः सदाचार के गुण से होता है जैसे पाप रहित तथा शुद्ध होना‌। परन्तु इब्रानी भाषा में इसका अर्थ मनुष्य की उस दशा से होता है जिसमें मनुष्य का जीवन या वस्तु को जीवन की साधारण दशा से हटाकर उसे पूर्णतः परमेश्वर के लिए समर्पित कर दिया जाता है।


परमेश्वर के लिए अलग होने का विचार –
परमेश्वर को इसलिए पवित्र समझा जाता था क्योंकि वह मनुष्य जाति से वरन् सृजी गई सभी वस्तुओं से अलग था। -निर्ग.15:11-12, यशा.6:3;8:13, प्र.वा.3:7;4:8.
इस्राएल भी पवित्र था क्योंकि वह परमेश्वर के लिए समर्पित था और वह आस-पास की जातियों के धर्मों तथा परम्पराओं से बिल्कुल अलग था। - निर्ग.19:6, व्यव.7:6.
सभ्य [विश्राम दिवस] तथा अन्य धार्मिक पर्वों के दिन भी पवित्र माने जाते थे क्योंकि वे अन्य सांसारिक कार्यों के दिनों से अलग समझे जाते थे। - निर्ग.31:15, लैव्य.23:4,21,24.
वे लोग जो सांसारिक जीवन से अलग होकर परमेश्वर की सेवा के लिए समर्पित होते – वे पवित्र समझे जाते थे।– लैव्य.21:6-8.
इसके अतिरिक्त साधारण उपयोग से अलग करके परमेश्वर की महिमा के लिए रखे जाने वाले स्थान और भूखण्ड पवित्र समझे जाते थे। - लैव्य.6:16; 27:21.
स्पष्ट दिखाई देनेवाले आराधना के स्थल जो पवित्र समझे जाते थे उनके अतिरिक्त कुछ और भी कम महत्त्व की वस्तुएं थीं जो पवित्र समझी जाती थी जैसे – वह पोशाक, तेल, भोजन और उपज। जिसे परमेश्वर के लिए अलग करके रखा जाता था। निर्ग.29:29-33,30:25,40:9, लैव्य.27:30, मत्ती7:6,23:17, प्रे.क्रि.6:13.
व्यक्ति या वस्तु का परमेश्वर से संबंध ही उसके पवित्र या अपवित्र होने को निर्धारित करता था।

II.भय [Fear]- 1पतरस1:17-21 के सन्दर्भ में
भय एक नकारात्मक भावना है।
विश्वास का न होना,भय को जन्म देता है -किसी भी वस्तु/व्यक्ति से दूरी, भय और अस्थिरता का कारण होता है।
भय, कई तरह के होते हैं जैसे – परास्त होने का भय, आम लोगों के सामने बोलने का भय, व्यग्रता का भय, परीक्षा का भय, गाड़ी चलाने का भय, अस्वीकृति का भय, पानी में डूबने का भय, आदि-आदि अनजाने भय हैं किन्तु हमारे लिये सबसे बड़ा भय मृत्यु है।
आश्चर्य की बात है कि बच्चें किसी भी वस्तु/व्यक्ति से नहीं डरते। ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके भूतकाल के कोई भी अनुभव नहीं होते‌। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं हम अच्छे और बुरे अनुभवों को पूंजी के रूप में जमा कर लेते हैं और यही अनुभव हमारे संस्कार बन जाते हैं और यही संस्कार भय में बदल जाते हैं।
इस जगत में व्यक्ति - उन लोगों से, प्रभावों से, वस्तुओं से और घटनाओं से डरता है जो उसे भयभीत करती है कि वे उसे अपने अधिकार में कर लेंगी,दबा देंगी या नष्ट करेगी। गिन.14:9, भ.सं.2:11. लूका 21:26, इब्रा.2:15,10:27.
भजन संहिता 2:11- डरते हुए यहोवा की उपासना करो, और कांपते हुए मगन हो
कुछ मामलों में यह निरर्थक भय हो सकता है।नी.व.29:25, गला.2:12.
परन्तु किसी किसी विषय में भय बड़ा अच्छा होता है जिससे आदर और सम्मान दिया जाता है।उत्प.20:11, लैव्य.26:2, रोमि.3:18, 1पत.2:18.
इसके बाद वाले भय में लोगों को अपने अधिकारियों से डरना चाहिए। लैव्य.19:3, नी.व.24:21, रोमि.13:3,7, इफि.6:5.
और विशेषकर उन्हें परमेश्वर से डरना चाहिए। भ.सं.34:11, यशा.8:13-15, प्रे.क्रि.9:31, 1पत.2:17.
पापी के पास परमेश्वर से डरने का अच्छा कारण है क्योंकि उस पर परमेश्वर का दण्ड एक दिन अवश्य पड़ेगा।मीका7:16-17, मत्ती10:28.
इसके विपरीत विश्वासी का परमेश्वर के प्रति भय उसके प्रेम से मिलकर होता है। व्य.वि.6:2,5, 1पत.1:8,3:15. यदि विश्वासी केवल इस डर से परमेश्वर की आज्ञा मानते हैं कि वह परमेश्वर के दण्ड से डरते हैं तो इस प्रकार का आज्ञापालन अपरिपक्व प्रेम है। विश्वासी को परमेश्वर की आज्ञा का पालन उसे प्रेम करने के कारण करना चाहिए। व्य.वि.10:12, रोमि.8:15, 1यूह.4:17-18,5:3.
फिर भी विश्वासी का परमेश्वर के प्रति प्रेम उसके सम्मान का विकल्प नहीं है और न ही यह उसे न्याय से बचाता है। परमेश्वर फिर भी पवित्रता और आज्ञापालन चाहता है।वह सर्वशक्तिमान न्यारी होने के साथ साथ प्रेमी पिता भी है। अतः विश्वासी को उससे सोच समझकर डरना चाहिए और उससे भरपूर प्रेम भी करना चाहिए। 2कोरि.7:1, 1पत.1:16-17.
इस प्रकार का प्रेमपूर्ण व्यवहार एक ऐसा जीवन निर्वाह करने के लिए परमेश्वर की सहायता का आश्वासन देता है जो उसे प्रिय है और स्वयं व्यक्ति के लिए भी लाभदायक है। भ.सं.147:11, नी.व.1:7,8:13,9:10,10:27,14:26, फिलि.2:12-13.
इससे जीवन की कठिन परिस्थितियों और अनिश्चितताओं में भय न करने का आश्वासन मिलता है। भ.सं.46:2,112:1;7, लूका 12:4-5, 1पत.3:14-15.


III.प्रेम [Love] – 1पतरस 1:22-25 के सन्दर्भ में
प्रेम एक अहसास है । प्रेम अनेक भावनाओं का,रवैयों का मिश्रण है जो पारस्परिक स्नेह से लेकर खुशी की ओर विस्तारित है । प्रेम एक मजबूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है । ये किसी की दया, भावना और स्नेह प्रस्तुत करने का तरीका भी माना जा सकता है। खुद के प्रति स्नेहपूर्वक कार्य करने या जताने को प्रेम कह सकते हैं। प्राचीन काल में यूनानियों ने 04 प्रकार के प्रेम को पहचाना है – रिश्तेदारी, दोस्ती, रोमानी इच्छा [प्रेम प्रसंगयुक्त, Romantic] और दिव्य प्रेम [ईश्वरीय, Divine]
1 कुरिन्थियों 13:4-7 -
[4]प्रेम धीरजवन्त है, और कृपाल है; प्रेम डाह नहीं करता; प्रेम अपनी बड़ाई नहीं करता, और फूलता नहीं।
[5]वह अनरीति नहीं चलता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुंझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता।
[6]कुकर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है।
[7]वह सब बातें सह लेता है, सब बातों की प्रतीति करता है, सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धीरज धरता है।
1 कुरिन्थियों 13:13 -
[13]पर अब विश्वास, आशा, प्रेम थे तीनों स्थाई है, पर इन में सब से बड़ा प्रेम है।


मनुष्य का प्रेम -
मनुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह परमेश्वर से अपने सम्पूर्ण मन व अस्तित्व से प्रेम रखें। उसे परमेश्वर के प्रति भक्ति की भावना रखनी चाहिए तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए। व्य.वि.6:5,10:12, भ.सं.18:1-3, मत्ती 22:37.
इस प्रकार की भक्ति और आज्ञापालन के फलस्वरूप वह परमेश्वर के प्रेम के अर्थ को और अधिक समझेगा और परमेश्वर की संगति के महान आनन्द का अनुभव करेगा। भ.सं.116:1-4, यूह.14:21-23, 1कुरि.2:9;8:3, 1पत.1:8, 1यूह.4:7,12,19.
परमेश्वर के प्रति प्रेम कभी कभी कठिनाइयां उत्पन्न कर सकता है। जब लोग अन्य बातों, इच्छाओं और अभिलाषाओं से अधिक परमेश्वर के प्रति भक्तिभाव रखतें हैं तो कुछ समस्याएं वह कठिनाइयां उठ खड़ी होती है। मत्ती6:24, 10:37-39, 1यूह.2:15-17.
सच्चे प्रेम में त्याग निहित होता है। इफि.5:25, रोमि.14:15, 1कुरि.13:4-7.
परमेश्वर से संबंध रखने के लिए विश्वास और आज्ञापालन भी वैसी ही प्रथम आवश्यकता है जैसे -- प्रेम। यदि लोग दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं तो वे अपने आपको धोखा देते हैं। यूह.14:15,24, गला.5:6, याकूब2:5.
इसी प्रकार यदि वे परमेश्वर से प्रेम करने का दावा करते हैं और अपने पड़ोसी से प्रेम नहीं करते तो अपने आपको धोखा देते हैं। रोमि.13:10, 1यूह.3:10,17; 4:8,20.
मसीहियों को दूसरों की भी वैसी प्रेमपूर्वक चिन्ता करनी चाहिए जैसी वे अपनी चिन्ता करते हैं। मत्ती22:39 फिलि.2:4.
प्रेम उन लोगों की विशेषता है जिनमें परमेश्वर का आत्मा निवास करता है क्योंकि जब वे मसीह में परमेश्वर का उद्धार ग्रहण करते हैं तो पवित्र आत्मा उनमें परमेश्वर का प्रेम मर देता है।यूह.15:9-10, रोमि.5:5, गला.5:22, इफि3:17-19, 5:12.
मसीहियों को सब के साथ ऐसा प्रेम करना चाहिए और अपनी साथी मसीहियों के प्रति इसे विशेष रूप से करना चाहिए। यूह.13:34,15:12-17, गला.6:10, 1पत.3:8, 1यूह.3:16-17.
इस प्रकार प्रेम प्रमाणित करता है कि वे सचमुच मसीही है और यह उन्हें आत्मिक उन्नति में सहायता पहुंचाता है। यूह.4:12,17.
परमेश्वर की कलीसिया का आधार प्रेम है और इसी प्रकार यह प्रेम के द्वारा बढ़ती है। मसीहियों में प्रेम की एकता दुनिया के सम्मुख यह प्रमाण होगा कि मसीहियत के दावे सच्चे हैं। यूह.17:20-23.
यद्यपि परमेश्वर चाहता है कि हम एक दूसरे से प्रेम रखें फिर भी लोगों को इसे कानूनी आवश्यकता के समान नहीं समझना चाहिए। उन्हें सच्चाई के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए,चाहे उनमें किसी विशेष व्यक्ति के प्रति प्रेम भावना न हो फिर भी उन्हें उससे अच्छा करना चाहिए। निर्ग.23:4-5, लैव्य.19:17-18, रोमि.12:9, 1कुरि.13: 4-7,1तिमो.1:5.
हमारे भले कार्य भी यदि वे सच्चे प्रेम के कारण न किये जाएं तो वे परमेश्वर की दृष्टि में निरर्थक हो सकते हैं। 1कुरि.13:1-3,  प्र.व.2:2-4.
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
यह पत्री वचन रोमी सम्राट नीरो के शासन काल में सन् 54-68 के मध्य में लिखा गया था, जब मसीहियों पर सब जगह सताव बढ़ रहा था। यही वह भाग था जिसे मसीही लोग बेबीलोन कहते थे क्योंकि इसी स्थान पर परमेश्वर के लोगों को सबसे बुरी रीति से सताया जाता था। पतरस कि विचार था कि इससे भी भयंकर सताव पड़नेवाला है। पतरस वहां के मसीहियों को सांत्वना देता था कि सताव आने पर वे आश्चर्यचकित और लज्जित न हो बल्कि सताव को सहनशीलता के सहना था और मृत्यु तक धैर्य रखकर मसीह में अपने विश्वास की गवाही देनी थी। इस प्रकार इस पत्री वचन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हम विश्वासियों को पवित्रता, भय और प्रेम के सद्गुणों के साथ परमेश्वर के सम्मुख आयें।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

 


Disclaimer     ::     Privacy     ::     Login
Copyright © 2019 All Rights Reserved