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हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं
Lk 23:46 - -Reunion(7th Word of Jesus) Dated :- 03.04.2015.
✔46 और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा; हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं: और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।
✔46.Jesus called out with a loud voice, “Father, into your hands I commit my spirit.” When he had said this, he breathed his last.
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वचन का पृष्टभुमि- |
आज से लगभग 1982 (03April33AD) वर्ष पूर्व यरूशलेम के निकट Golgotha नामक स्थान पर एक अव्दितीय ऐतिहासिक घटना घटी। जहाँ हमारे प्रभु यीशु मसीह ने क्रूस की मृत्यु-शय्या पर से उध्दार, पाप-मक्ति की 07 अनमोल वचन कहा है जिसे हम क्रूस-वाणी या उक्तियाँ (utterances) के नाम से भी जानते हैं।
(i)अंक/संख्या - 7 ("Perfection") "पूर्णतः", पूरा होना और सिध्दता को प्रदर्शित करता है। इसके अलावा अंक-7 कार्य को पूरा करके "विश्राम" ("Rest") करने का भी सूचक है।
(ii)आदि में परमेश्वर ने आकाश और पृथ्वी की सृष्टि की और उनमें की सब कुछ को बनाया । इस प्रकार परमेश्वर ने वचन की सृजनात्मक शक्ति से 6 दिनों तक सृजन का कार्य किया और 7 वें दिन विश्राम किया। इसलिए 7 वें दिन को आशीष दी और पवित्र ठहराया।
(iii)इसी भाँति हम प्रभु यीशु मसीह का क्रूस-वाणी के वचन को देखते हैं तो पाते हैं कि वचन की भी संख्या 7 है - जो मुक्ति की पूर्णतः और सिध्दता के पश्चात विश्राम का भी प्रतीक है।
(iv) Mk15:25 के अनुसार यीशु मसीह को प्रात: 9 बजे क्रूस-आरोपण किया गया।
(v)Mk15:33 के अनुसार 3 घण्टे तक (12Noon से 3PM; दोपहर से तीसरे पहर तक) पूरे देश में अन्धेरा छाया रहा ।परमेश्वर की ओर से यह सच्चा चमत्कार इसलिए हुआ क्योंकि --
(vi) यीशु की मृत्यु के समय विश्व - विधाता (cosmos) के द्वारा दुःख व शोक(विलाप) को व्यक्त करता है और यहूदी लोगों पर "परमेश्वर के न्याय" का चिन्ह को दर्शाता है।
(vii)परमेश्वर अपने पुत्र यीशु पर दया किया कि सूरज की रोशनी से यीशु का मुख ढाँका रहे।
(viii) इस समय के दौरान अर्थात् 3 घण्टे तक (12Noon to 3PM) परमेश्वर से यीशु का कोई सम्पर्क नही रहा।
(ix)Lk23:45- मंदिर का परदा बीच से दो टुकड़ा हो गया ।
(x) Mt27:51-
51 और देखो मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकड़े हो गया: और धरती डोल गई और चटानें तड़क गईं।
(xi) करीबन 6 घण्टे तक यीशु मसीह क्रूस पर मृत्यु -शय्या में पड़ा रहा और 3 बजे अपरान्ह में (3रा पहर ) क्रूस पर अंतिम वाणी अर्थात् 7वीं क्रूस-वाणी की पूर्णतः उपरान्त अपना प्राण न्योछावर कर दिया ।
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प्रायः लोग सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को 3 - 3 घण्टों में विभाजित करके पहर अथवा घण्टे में गिनते थे--
(a)6 बजे सुबह - Ge32:24,31.Mk16:2.
(b)1 ला पहर = 9 बजे AM - Mk15:25.Ac2:15.
(c)6 वाँ घण्टा = 12 बजे - Mk15:33. Ac10:9.
(d)9 वाँ घण्टा = 3 बजे PM- Mk15:33. Ac3:1
(e)12 वाँ घण्टा = 6बजे PM- Mk1:32 Jn11:9. Mt20:3,5-6,12.
Mk15:25- . यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया । 9 O'clock AM -Lk 23:44-45,Mk15:33- उस समय सारे देश में 03 घण्टे तक अन्धेरा छाया रहा है । 12 O'clock Noon to 3 O'clock PM. |
7वाँ क्रूस-वाणी पर मनन-चिन्तन--
✔यीशु ने ऊँचे स्वर से क्यों कहा ?
इसका दो कारण है -
I. क्योंकि उनके दुश्मनों व विरोधियों यह मालूम हो जाए कि उसने मृत्यु से विजय पा लिया है।और अपने सभी लोगों के लिए अनुग्रह और दया का ईनाम मोल ले लिया है।जिसे परमेश्वर पिता ने जगत की सृष्टि के पूर्व से ही चुन लिया है। और अन्धकार की शक्तियों की सभी कोशिशों को नष्ट व खत्म कर दिया कि मनुष्य पाप से मन फिराव के बाद परमेश्वर से मेल - मिलाप कर लें।
यह कैसे होगा ?
परमेश्वर के चुनी हुई प्रजा के सारे अपराध और उनके सब पाप व गुनाह क्रूस पर मिटा दिए गए।
II. क्योंकि उसके चेले और लोगों को यह मालूम हो जाए कि प्रभु यीशु स्वेच्छा से अपना प्राण उनकी अपनी भेड़ों के लिए अर्पित कर देता है कि नरक की यातना व अनन्त मृत्यु से छुटकारा मिले। प्रभु यीशु मसीह क्रूस पर हमारे सारे पापों की मजदूरी का भुगतान कर दिया है।
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हे पिता, से तात्पर्य--- लगभग 3 घण्टे तक पिता परमेश्वर से संबंध-विच्छेद रहने के कारण तीसरे पहर के अन्तिम क्षणों में यीशु, पिता परमेश्वर को पुकारता है ,सम्पर्क स्थापित करता है ।और परमेश्वर के साथ पुनः मेल मिलाप का सम्बन्ध जुड़ गया।
o परमेश्वर यीशु मसीह का पिता है - Jn1:18, 5:36 Ro15:6, 2Co1:3.
यीशु तो अनन्तकाल से पिता परमेश्वर का पुत्र है ।पिता और पुत्र दोनों का अस्तित्व अनन्तकाल से है
oपिता ने अपने पुत्र को इस जगत का उध्दारकर्ता होने के लिए भेज दिया और इस महाकार्य के लिए पुत्र के आज्ञाकारी होने का अर्थ था उसे दुख उठाकर मृत्यु सहनी होगी -Jn3:14-16.,12:27 Ro5:10, 8:32, 1Jn:4:9,10,14.
(a)पुत्र ने इस कार्य को मृत्यु तक आज्ञाकारी रहकर पूरा किया- Jn17:4.
(b)और परमेश्वर अपने पुत्र के इस कार्य से पूर्णतः सन्तुष्ट हुआ और उसने इसकी घोषणा उसे मृत्यु से जिलाकर की - Ro1:4.
(c)क्रूस पर पुत्र की विजय-शक्ति से पाप के अन्तिम चिन्ह मिटा दिया और पुत्र अपने पिता के हाथ में सब कुछ सौंप देता है और परमेश्वर का आनन्द पूरा हो गया। फिर परमेश्वर सब के लिए सब कुछ हो गया- 1Co15:24,28.
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मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूँ। Into your hands, I commit my spirit.
oआत्मा (Spirit)-
- वह चेतन(Animate) और अपार्थिव (Unearthly, Spiritual Lords) सत्त्व जिसका स्वभावतः किसी भी शरीर से सम्बन्ध नहीं होता ।
oआत्मा नाम की उपाधियाँ -
(a)Hebrews => Ruah.
(b)Wind or Breath.
(c)Greek => Pneuma.
I. परमेश्वर का यीशु से प्रेम का कारण (यीशु अच्छा चरवाहा ) -
-Jn10:17-18-
17 पिता इसलिये मुझ से प्रेम रखता है, कि मैं अपना प्राण देता हूं, कि उसे फिर ले लूं।
18 कोई उसे मुझ से छीनता नहीं, वरन मैं उसे आप ही देता हूं: मुझे उसके देने का अधिकार है, और उसे फिर लेने का भी अधिकार है: यह आज्ञा मेरे पिता से मुझे मिली है॥
II.यीशु ने नबियों /भविष्यद्वक्ताओं के वचन को पूरा किया -
✔यीशु अपने सम्पूर्ण जीवन के साथ-साथ उसने दुःखभोग और क्रूसीकरण को पुराना नियम के वचनों के अनुसार पूरा किया।
✔Ps31:5-
5 मैं अपनी आत्मा को तेरे ही हाथ में सौंप देता हूं; हे यहोवा, हे सत्यवादी ईश्वर, तू ने मुझे मोल लेकर मुक्त किया है।
III. यीशु पर विश्वास द्वारा पापमुक्ति - (Redemption in Christ Jesus )
o Ro3:24-25- 24 .परमेश्वर की कृपा से सबों को मुफ्त में पाप-मुक्ति का वरदान मिला है; क्योंकि यीशु मसीह ने सबों का उध्दार किया है ।
25 . परमेश्वर ने चाहा कि यीशु अपना रक्त बहाकर पाप का प्रायश्चित्त करें और हम विश्वास द्वारा उसका फल प्राप्त करें । परमेश्वर ने इस प्रकार अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण दिया; क्योंकि उसने अपनी सहनशीलता के अनुरूप पिछले युगों के पापों का अनदेखा कर दिया था ।
IV.यीशु का सबसे बड़ा प्रेम (Greater Love) -
oJn15:13- 13. अपने मित्रों के लिए अपना प्राण अर्पित करने से बड़ा किसी का प्रेम नहीं ।
V. सेवाभाव का महत्त्व -
oMt20:28- बहुतों के उध्दार(A Ransom for Many) -
28 . क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उध्दार के लिये अपने प्राण देने आया है ।
o 1Pe2:23 -
23 वह गाली सुन कर गाली नहीं देता था, और दुख उठा कर किसी को भी धमकी नहीं देता था, पर अपने आप को सच्चे न्यायी के हाथ में सौपता था।
VI . परमेश्वर से मेल-मिलाप का सेवा-कार्य (Ministry of Reconciliation )-
o2Co5:18-19-
18. परमेश्वर ने यह सब किया है - उसने मसीह के द्वारा अपने से हमारा मेल कराया और इस मेल-मिलाप का सेवा-कार्य हम प्रेरित को सौंपा है ।
19.इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर ने मनुष्यों के अपराध उनके खर्चे में न लिखकर मसीह के द्वारा अपने से संसार का मेल कराया और इस मेल-मिलाप के संदेश का प्रचार हमें सौंपा है।
oRo5:10-11-
10.हम शत्रु ही थे जब परमेश्वर के साथ हमारा मेल उसके पुत्र की मृत्यु द्वारा हो गया था और उसके साथ मेल हो जाने के बाद उसके पुत्र के जीवन द्वारा निश्चित ही हमारा उद्धार होगा ।
11 . इतना ही नहीं, अब तो हमारे प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर से हमारा मेल हो गया है; इसलिए हम उन्हीं के द्वारा परमेश्वर पर भरोसा रखकर आनन्दित हैं ।
VII.भ्रात-प्रेम की आज्ञा -
oJn15:12,14-
12.यह मेरी आज्ञा है - जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया है, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे से प्यार करो।
14 . यदि तुम लोग मेरी आज्ञाओं का पालन करते हो तो तुम मेरे मित्र हो।
oRo12:16-18- मसीह का आदर्श बनें (Marks of the True Christian)
16.आपस में मेल मिलाप का भाव बनाये रखें। घमण्डी न बनें, बल्कि दीन-दुखियों से मिलते-जुलते रहें । अपने आपको बुध्दिमान न समझें।
17.बुराई के बदले बुराई नहीं करें।दुनिया की दृष्टि में अच्छा आचरण करने का ध्यान रखें ।
18. जहाँ तक हो सके, अपनी ओर से ओर से सबों के साथ मेल-मिलाप बनाये रखें ।
oRo15:5-6- एक स्वर में परमेश्वर की स्तुति करना (One Voice Glorify the God) -
5.परमेश्वर ही धैर्य तथा सान्त्वना का स्त्रोत है । वह आप लोगों को यह वरदान दे कि आप मसीह की शिक्षा के अनुसार आपस में मेल-मिलाप बनाये रखें ।
6.जिससे आप लोग एकचित होकर एक स्वर से हमारे प्रभु यीशु मसीह के परमेश्वर तथा पिता की स्तुति करते हैं ।
VIII. नवीन मानवता की एकता -
o Eph2:12-16 (One in Christ)
12. आप याद रखें कि पहले आप मसीह से अलग थे, इस्राएल के समुदाय से बाहर थे, विधान की प्रतिज्ञाओं से अपरिचित और इस संसार में आशा और परमेश्वर से रहित थे।
13. आप लोग पहले दूर थे, किन्तु यीशु मसीह से संयुक्त होकर आप अब मसीह के रक्त द्वारा निकट आ गये हैं ।
14. क्योंकि वही हमारी शान्ति है ।उन्होंने यहूदियों और गैर यहूदियों को एक कर दिया है । दोनों में जो शत्रुता की दीवार थी । उसे उन्होंने गिरा दिया है।
15. और अपनी मृत्यु द्वारा विधि- निषेधों की संहिता को रद्द कर दिया । इस प्रकार उन्होंने यहूदियों तथा गैर यहूदियों को अपने से मिलाकर एक नयी मानवता की सृष्टि की और शान्ति स्थापित की है।
16. उन्होंने क्रूस द्वारा दोनों का एक ही शरीर में परमेश्वर के साथ मेल कराया और इस प्रकार शत्रुता को नष्ट कर दिया ।
oEph4 :2-6 मसीही एकता (Unity in the Body of Christ)
2. आप पूर्ण रूप से विनम्र, सौम्य तथा सहनशील बनें। प्रेम से एक दूसरे को सहन करें।
3. और शान्ति के सूत्र में बँधकर उस एकता को, जिसे पवित्र आत्मा प्रदान करता है, बनाये रखने का प्रयत्न करते रहें ।
4. एक ही शरीर, एक ही आत्मा और एक ही आशा, जिसके द्वारा आप बुलाये गये हैं ।
5.एक ही प्रभु है, एक ही विश्वास और एक ही बपतिस्मा,
6. एक ही परमेश्वर है, जो सबों का पिता, सब के ऊपर, सब के साथ और सब में व्याप्त है ।
IX . मसीह की महिमा (The Supermacy of Christ)-
o Col1:16,20-
16. क्योंकि उन्हीं के द्वारा सब कुछ की सृष्टि हुई है।सब कुछ --- चाहे वह स्वर्ग में हो या पृथ्वी पर, चाहे दृश्य या अदृश्य और स्वर्गदूतों की श्रेणियाँ भी --- सब कुछ उनके द्वारा उनके लिए सृष्ट किया गया है ।
20. मसीह ने क्रूस पर जो रक्त बहाया, उसके द्वारा परमेश्वर ने शान्ति की स्थापना की । इस तरह परमेश्वर ने उन्हीं के द्वारा सब कुछ का चाहे वह पृथ्वी पर हों या स्वर्ग में, अपने से मेल कराया।
X . अविश्वासी नाजरेत (The Rejection of Jesus at Nazareth)
Lk4:18-19-
18 प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने कंगालों को मेरा अभिषेक किया है।उसने मुझे भेजा है जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ , बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ , दलितों को स्वतंत्र करूँ ।
19 और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूं।
-(यशायाह ग्रंथ के प्रस्तुत उदाहरण में जयंती-वर्ष( Mt25:10-17) का संकेत है । वह प्रत्येक 50 वें वर्ष में पड़ता था । उस वर्ष पुराने ऋण माफ हो जाते थे।पैतृक भू-सम्पत्ति लौटा दी जाती थी और दास मुक्त हो जाते थे। वह वर्ष यहाँ पर यीशु मसीह द्वारा लायी हुई मुक्ति का प्रतीक माना गया है )
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हम कैसे जानें कि यीशु ने अपना जीवन वास्तव में अर्पित किया।आइए, हम निम्न 06 उदाहरण देखें -
I. यीशु की गिरफ्तारी (The Arrest of Jesus )-
oJn18:4-9-
4 तब यीशु उन सब बातों को जो उस पर आनेवाली थीं, जानकर निकला, और उन से कहने लगा, किसे ढूंढ़ते हो?
5 उन्होंने उसको उत्तर दिया, "यीशु नासरी को।" यीशु ने उनसे कहा, " मैं हूँ "। उसका पकड़वानेवाला यहूदा भी उनके साथ खड़ा था।
6 उसके यह कहते ही, कि "मैं हूँ ," वे पीछे हटकर भूमि पर गिर पड़े।
7 यीशु ने उनसे फिर पूछा,"किसे ढूंढ़ते हो ? वे बोले, "यीशु नासरी को"।
8.इस पर यीशु ने कहा," मैं तुम लोगों से कह चुका हूँ कि मैं वही हूँ। यदि तुम मुझे ढूँढ़ते हो, तो इन्हें जाने दो।"
9 यह इसलिये हुआ कि उनका यह कथन पूरा हो जाये -- तूने मुझको जिन्हें सौंपा , मैंने उनमें से एक का भी सर्वनाश नहीं होने दिया ।
-( किद्रोन नाले के पार गतसमनी की बारी में यीशु की गिरफ्तारी के समय अपने चेलों के साथ रहे थे ।)
-( यीशु उनके साथ चल पड़ा क्योंकि भूमि पर वे शक्तिहीन हो गये थे।)
II. भाले से बेधा गया(Jesus' Side is Pierced)-
oJn19:33-37-
33. जब सैनिकों ने यीशु के पास आकर देखा कि वह मर चुके हैं, तो उन्होंने उनकी टांगें नहीं तोड़ीं ;
34. लेकिन एक सैनिक ने उनकी बगल में भाला मारा और उसमें से तुरन्त रक्त और जल बह निकला।
35 जिसने यह देखा है , वही इसका साक्ष्य देता है और उसका साक्ष्य सच्चा है। वह जानता है कि वह सच बोलता है,जिससे आप लोग भी विश्वास करें ।
36 यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाए-- उसकी एक भी हड्डी नहीं तोड़ी जाएगी;
37 फिर धर्मग्रंथ का एक दूसरा कथन इस प्रकार है -- उन्होंने जिसे छेदा, वे उसी की ओर देखेंगे ।
III.मैं प्यासा हूँ -
-Jn19:28-
28.तब यीशु ने यह जानकर कि अब सब कुछ पूरा हो चुका है, धर्मग्रंथ का लेख पूरा करने के उद्देश्य से कहा, " मैं प्यासा हूँ "।
- Ps69:21-
21. लोगों ने मेरे खाने के लिये इन्द्रायन दिया और मेरी प्यास बुझाने के लिये मुझे सिरका पिलाया ।
IV.यीशु ने सिर झुकाकर प्राण त्याग दिया -
-Jn19:30-
30.यीशु ने खट्टी अंगूरी चख कर कहा," सब पूरा हो चुका है " और सिर झुकाकर प्राण त्याग दिये।
-( इसका तात्पर्य यह है कि यीशु का सिर क्रूस पर 06 घण्टे तक सीधा खड़ा था।उसने जान-बूझकर (Consciously) शान्ति से(Calmly) और आदर से (Revently) अपना सिर झुका दिया । )
V . यीशु अपनी आत्मा पिता को सौंप दिया-
oLk23:46-
46.और यीशु ने बड़े शब्द से पुकार कर कहा; हे पिता, मैं अपनी आत्मा तेरे हाथों में सौंपता हूं: और यह कहकर प्राण छोड़ दिए।
VI. - 06 घण्टों में यीशु का क्रूस मृत्यु होना प्राकृतिक प्रवृत्ति का नहीं था क्योंकि यीशु अपना आत्मा परमेश्वर पिता को सौंप देता है ।
-दो अपराधी, यीशु के मृत्यु के बाद तक जीवित थे इसलिए उनकी हड्डी तोड़ी गयी।
-मनुष्यों का क्रूसीकरण पर 10 दिनों तक बच पाना व जीवित रहने की संभावना हो सकता है ।
-इसलिए यीशु अपना आत्मा सौंप देता है ।
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अनन्त सुरक्षा (Eternal Security)-
- यीशु का क्रूस-मृत्यु के बाद जो उसके पीछे, उसके सिध्दान्तों पर चलता है उन्हें अनन्त सुरक्षा का आशीर्वाद व आशीष देता है -
1.oJn6:37- पिता, जिन्हें मुझको सौंप देता है, वे सब मेरे पास आयेंगे और जो मेरे पास आता है, मैं उसे कभी नहीं ठुकराऊँगा।
2.oJn10:29- मेरे पिता ने मुझे उन्हें दिया है; वह सबसे महान है। कोई भी उन्हें पिता से नहीं छीन सकता ।
3.o1Pe1:5- जीने का आरज़ू(A Living Hope) - 5.आपके विश्वास के कारण परमेश्वर का सामर्थ्य आपको उस मुक्ति के लिए सुरक्षित रखता है, जो अभी से प्रस्तुत है और समय के अन्त में प्रगट होने वाली है ।
4.oRo6:23- 23. क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु यीशु मसीह में अनन्त जीवन है ।
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प्रभु यीशु के क्रूस-वाणी का क्रमवार उक्तियाँ की शिक्षा का सारांश इस प्रकार है-
1.Forgiveness (पाप-क्षमा / छुटकारा)
- जो लोग यीशु मसीह के दुश्मन, बैरी और विरोधी थे, उन्हीं लोगों ने यीशु को सूली चढ़वाया । प्रभु यीशु ने इन्हीं लोगों के लिए परमेश्वर पिता से क्षमा माँगा।
2.Salvation (पाप-मुक्ति/ उध्दार)
- पापों से मुड़कर परमेश्वर की ओर लौटना।
- जिस तरह पश्चातापी कुकर्मी अपने सब पाप व गुनाहों को स्वीकार किया और यीशु को मसीह माना।
- यीशु ने कहा,"पश्चाताप करो ! क्योंकि स्वर्ग का निकट आ गया है।"
Mt4:17. क्योंकि पश्चाताप के बिना उध्दार नहीं हो सकता।
3. Relationship > सम्बन्ध /रिश्ता।
4.Abandonment > त्यागना/आत्म-समर्पण।
5.Distress > कष्ट/दुःख-तकलीफ/अति क्लेश/ पीड़ा।
6.Triumph > जयवन्त होना/जय पाना /विजय ।
7.Reunion > पुनःसंयोग/दुबारा मेल कराना
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प्रभु यीशु क्रूस पर अपने अनमोल लोहू की अंतिम बूँद बहाकर अपनी जान न्योछावर कर दिया , ताकि समस्त मानव जाति का उध्दार हो।
- प्रेम से बड़ी और कोई दूसरी चीज़ नहीं है। अपने जीवन-काल में यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था ।
Jn15:13-"अपने मित्रों के लिए अपना प्राण अर्पित करने से बड़ा और किसी का प्रेम नहीं।"
-जैसा कि पिता परमेश्वर की पवित्र इच्छा व मुक्ति योजना थी -" बिना लोहू बहाये पापों के अपराधों की क्षमा नहीं मिलती।"
- Eph5:2 - 2. और प्रेम में चलो; जैसे मसीह ने भी तुम से प्रेम किया; और हमारे लिये अपने आप को सुखदायक सुगन्ध के लिये परमेश्वर के आगे भेंट करके बलिदान कर दिया।
- Heb9:12-14-
12 और बकरों और बछड़ों के लोहू के द्वारा नहीं, पर अपने ही लोहू के द्वारा एक ही बार पवित्र स्थान में प्रवेश किया, और अनन्त छुटकारा प्राप्त किया।
13 क्योंकि जब बकरों और बैलों का लोहू और कलोर की राख अपवित्र लोगों पर छिड़के जाने से शरीर की शुद्धता के लिये पवित्र करती है।
14 तो मसीह का लोहू जिस ने अपने आप को सनातन आत्मा के द्वारा परमेश्वर के साम्हने निर्दोष चढ़ाया, तुम्हारे विवेक को मरे हुए कामों से क्यों न शुद्ध करेगा, ताकि तुम जीवते परमेश्वर की सेवा करो।
- Malachi4:2- 2. परन्तु तुम्हारे लिये जो मेरे नाम का भय मानते हो, धर्म का सूर्य उदय होगा, और उसकी किरणों के द्वारा तुम चंगे हो जाओगे; और तुम निकल कर पाले हुए बछड़ों की नाईं कूदोगे और फांदोगे।
- उध्दार, मक्ति, मोक्ष -- यीशु मसीह के जन्म के द्वारा नही है और न ही यह उसके जीवन के द्वारा है परन्तु यह उसकी मृत्यु के द्वारा है।
- यीशु की मृत्यु एक ऐसा अद्वितीय और महान कार्य था। जिसके द्वारा परमेश्वर पाप से निपट कर दोषी व्यक्तियों को पाप की दण्ड से छुटकारा दे सकता था । उसने पापियों को पाप की शक्ति और मृत्यु से छुटकारा दिलाने के लिये मूल्य चुकाया।
- और परमेश्वर से हमारा पुनः संबंध जुड़ गया और मेल-मिलाप हो गया ।
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