•01072023•
एक दूसरे से प्रेम रखो
1 यूहन्ना 3:11-24 –
[11]क्योंकि जो समाचार तुम ने आरम्भ से सुना, वह यह है, कि हम एक दूसरे से प्रेम रखें।
[12]और कैन के समान न बनें, जो उस दुष्ट से था, और जिस ने अपने भाई को घात किया: और उसे किस कारण घात किया? इस कारण कि उसके काम बुरे थे, और उसके भाई के काम धर्म के थे॥
[13]हे भाइयों, यदि संसार तुम से बैर करता है तो अचम्भा न करना।
[14]हम जानते हैं, कि हम मृत्यु से पार होकर जीवन में पहुंचे हैं; क्योंकि हम भाइयों से प्रेम रखते हैं: जो प्रेम नहीं रखता, वह मृत्यु की दशा में रहता है।
[15]जो कोई अपने भाई से बैर रखता है, वह हत्यारा है; और तुम जानते हो, कि किसी हत्यारे में अनन्त जीवन नहीं रहता।
[16]हम ने प्रेम इसी से जाना, कि उस ने हमारे लिये अपने प्राण दे दिए; और हमें भी भाइयों के लिये प्राण देना चाहिए।
[17]पर जिस किसी के पास संसार की संपत्ति हो और वह अपने भाई को कंगाल देख कर उस पर तरस न खाना चाहे, तो उस में परमेश्वर का प्रेम क्योंकर बना रह सकता है?
[18]हे बालकों, हम वचन और जीभ ही से नहीं, पर काम और सत्य के द्वारा भी प्रेम करें।
परमेश्वर के सम्मुख हियाव
[19]इसी से हम जानेंगे, कि हम सत्य के हैं; और जिस बात में हमारा मन हमें दोष देगा, उसके विषय में हम उसके साम्हने अपने अपने मन को ढाढ़स दे सकेंगे।
[20]क्योंकि परमेश्वर हमारे मन से बड़ा है; और सब कुछ जानता है।
[21]हे प्रियो, यदि हमारा मन हमें दोष न दे, तो हमें परमेश्वर के साम्हने हियाव होता है।
[22]और जो कुछ हम मांगते हैं, वह हमें उस से मिलता है; क्योंकि हम उस की आज्ञाओं को मानते हैं; और जो उसे भाता है वही करते हैं।
[23]और उस की आज्ञा यह है कि हम उसके पुत्र यीशु मसीह के नाम पर विश्वास करें और जैसा उस ने हमें आज्ञा दी है उसी के अनुसार आपस में प्रेम रखें।
[24]और जो उस की आज्ञाओं को मानता है, वह उस में, और वह उन में बना रहता है: और इसी से, अर्थात् उस आत्मा से जो उस ने हमें दिया है, हम जानते हैं, कि वह हम में बना रहता है।
Love One Another
11 This is the message you heard from the beginning: We should love one another.
12 Do not be like Cain, who belonged to the evil one and murdered his brother. And why did he murder him? Because his own actions were evil and his brother’s were righteous.
13 Do not be surprised, my brothers, if the world hates you.
14 We know that we have passed from death to life, because we love our brothers. Anyone who does not love remains in death.
15 Anyone who hates his brother is a murderer, and you know that no murderer has eternal life in him.
16 This is how we know what love is: Jesus Christ laid down his life for us. And we ought to lay down our lives for our brothers.
17 If anyone has material possessions and sees his brother in need but has no pity on him, how can the love of God be in him?
18 Dear children, let us not love with words or tongue but with actions and in truth.
19 This then is how we know that we belong to the truth, and how we set our hearts at rest in his presence
20 whenever our hearts condemn us. For God is greater than our hearts, and he knows everything.
21 Dear friends, if our hearts do not condemn us, we have confidence before GGod
22 and receive from him anything we ask, because we obey his commands and do what pleases him.
23 And this is his command: to believe in the name of his Son, Jesus Christ, and to love one another as he commanded us.
24 Those who obey his commands live in him, and he in them. And this is how we know that he lives in us: We know it by the Spirit he gave us.
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पृष्ठभूमि –
पहली शताब्दी के अन्त में इफिसुस और उसके आस-पास के कई कलीसियाओं को झूठी शिक्षा के कारण बड़े संकट और तनाव का सामना करना पड़ा (प्रका.2:2-6; 20:17,29-30)।
इफिसुस में गड़बड़ी फैलानेवालों का मुखिया सेरिन्थस था। वह आत्मा तथा पदार्थ(शरीर) के सम्बन्ध में ज्ञानवादी विचारधारा से प्रभावित था, इसलिए उसने यीशु के सम्बन्ध में गलत विचारधारा को विकसित किया था। यीशु को पवित्र तथा पदार्थ(शरीर) को अपवित्र तथा बुरा समझकर उसने यह अस्वीकार किया कि यीशु मसीह एक ही समय में परमेश्वर और मनुष्य साथ साथ नहीं हो सकता। इस कारण कई प्रकार की ग़लत शिक्षाएं फैल गई। कुछ लोगों ने यीशु के ईश्वरत्व का इन्कार किया तो कुछ ने उसके सच्चे मनुष्यत्व को नहीं माना (1यूह.2:22, 4:2-3)
आत्मा तथा पदार्थ(शरीर) के सम्बन्ध में ज्ञानवादी विचारों तथा यीशु के सम्बन्ध में गलत शिक्षा के कारण विश्वासियों में भी ग़लत व्यवहार विकसित हुआ। सेरिन्थस ने सिखाया कि देह की क्रियाएं आत्मा को दूषित नहीं कर सकती अतः विश्वासी लोग अपनी इच्छा के अनुसार पाप कर सकते हैं। यूहन्ना ने इस प्रकार की शिक्षा की भर्त्सना की(1यूह.3:6) उसने जोर देकर कहा कि मसीहियों को परमेश्वर के प्रति विश्वासयोग्य होना चाहिए, उन्हें एक दूसरे से प्रेम करना चाहिए और संयम के साथ रहना चाहिए।
इस समय में इफिसुस में यूहन्ना रहता था। यूहन्ना ने मसीहियों को यीशु से परिचित कराने तथा यीशु के द्वारा हमारे लिए लाये गये उद्धार के बारे में समझाने के लिए पहले सुसमाचार को लिखा (यूह.20:31)। और फिर उसने तीन पत्रियां भी झूठी शिक्षा के कुछ विचारों का उत्तर देने के लिए लिखी थी (1यूह.5:13)।
प्रेम[Love] का अर्थ- किसी व्यक्ति, वस्तु, काम, बात, विषय आदि के प्रति हमारे मन में उत्पन्न होने वाला प्यार से है, जो सकारात्मक भावना व विचार पर आधारित है।
प्रेम एक क्रियात्मक शब्द है। यदि आप दूसरों से प्रेम करते हैं तो आप उनके लिये कार्य करेंगे।
प्रेम का आशय -
प्रेम एक अहसास है। प्रेम अनेक भावनाओं का, रवैयों का मिश्रण है जो पारस्परिक स्नेह से लेकर खुशी की ओर विस्तारित है। प्रेम एक मजबूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है। ये किसी की दया, भावना और स्नेह प्रस्तुत करने का तरीका भी माना जा सकता है। खुद के प्रति या किसी जानवर के प्रति, या किसी इन्सान के प्रति स्नेहपूर्वक कार्य करने या जताने को प्रेम कह सकते हैं।
प्राचीन यूनानियों के पास प्रेम के लिए चार अलग-अलग शब्द थे। उन शब्दों के बीच के अंतर को समझना महत्वपूर्ण है और प्रेरित पौलुस ने ग्रीक शब्द अगापे को चुना -
1.इरोज़(Eros) – प्रेम प्रसंगयुक्त, रोमानी इच्छा-Romantic. (यौनाकर्षण प्रेम)।
2.स्टोर्ज़(Storge) – पारिवारिक प्रेम (रिश्तेदारी)।
3.फिलिया(Phillia) – मिलनसार, भाईचारे की दोस्ती(भ्रातृत्व प्रेम) और स्नेह, मित्रता।
4.अगापे(Agape) – आत्म-त्याग का प्रेम, दिव्य प्रेम, ईश्वरीय(Divine)।
इसका अभिप्राय परमेश्वर के प्रेम है (यूह.3:16, रोमियों 5:5-8) तथा यह ऐसे निश्छल प्रेम को वर्णित करता है जिसे परमेश्वर के अनुयायियों को दूसरे लोगों पर प्रकट करना होता है(मर.12:31, रोमियों 13:9,लैव्य19:18)।
1Co13:4—7 –
4 प्रेम धीरजवन्त है, और कृपाल है; प्रेम डाह नहीं करता; प्रेम अपनी बड़ाई नहीं करता, और फूलता नहीं।
5 वह अनरीति नहीं चलता, वह अपनी भलाई नहीं चाहता, झुंझलाता नहीं, बुरा नहीं मानता।
6 कुकर्म से आनन्दित नहीं होता, परन्तु सत्य से आनन्दित होता है।
7 वह सब बातें सह लेता है, सब बातों की प्रतीति करता है, सब बातों की आशा रखता है, सब बातों में धीरज धरता है।
1Co13:13– पर अब विश्वास, आशा, प्रेम ये तीनों स्थाई है, पर इन में सब से बड़ा प्रेम है।
परन्तु पुराना नियम और नया नियम दोनों में, परमेश्वर जिस प्रकार के प्रेम के साथ अपने लोगों को जीवन जीने के लिये कहता है वह दूसरों की सहायता करने वाला प्रेम है, यहां तक कि किसी शत्रु की भी सहायता करना। यही परमेश्वर ने मसीह में किया, और ऐसा ही उसके लोगों को संसार के लिये करना है।
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1यूहन्ना3:11- क्योंकि जो समाचार तुम ने आरम्भ से सुना, वह यह है, कि हम एक दूसरे से प्रेम रखें।
यह वह आज्ञा है जिसे यीशु ने अपने चेलों को यूहन्ना 13:34,35 में दिया, जैसा कि लिखा है--
यूहन्ना 13:34,35 –(नई आज्ञा)
[34]मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दुसरे से प्रेम रखो।
[35]यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।
यह उस पुरानी आज्ञा पर आधारित है जो मूसा की व्यवस्था में थी -- “एक दूसरे से अपने ही समान प्रेम रखना”(लैव्य.19:18)।
लैव्यवस्था 19:18 का दूसरा खण्ड -
[18]पलटा न लेना, और न अपने जाति भाइयों से बैर रखना, परन्तु एक दूसरे से अपने समान प्रेम रखना; मैं यहोवा हूं।
प्रेम के अन्तर्गत दिव्य स्वभाव की इतनी अधिक विशेषताएं हैं कि बाइबल स्पष्ट घोषणा करती है कि परमेश्वर प्रेम है। परमेश्वर जो कुछ भी कहता और करता है उससे उसका प्रेम प्रकट होता है। (1यूहन्ना4:8,16)।
परमेश्वर अपने स्वयं की इच्छा के प्रदर्शन में सर्वोच्च भलाई को ढूंढ़ता है।
इफिसियों 2:4-5 -
[4]परन्तु परमेश्वर ने जो दया का धनी है; अपने उस बड़े प्रेम के कारण, जिससे उसने हमसे प्रेम किया।
[5]जब हम अपराधों के कारण मरे हुए थे, तो हमें मसीह के साथ जिलाया; (अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है।)
मत्ती 5:44-46 -
[44]परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सताने वालों के लिये प्रार्थना करो।
[45]जिस से तुम अपने स्वर्गीय पिता की सन्तान ठहरोगे क्योंकि वह भलों और बुरों दोनो पर अपना सूर्य उदय करता है, और धमिर्यों और अधमिर्यों दोनों पर मेंह बरसाता है।
[46]क्योंकि यदि तुम अपने प्रेम रखने वालों ही से प्रेम रखो, तो तुम्हारे लिये क्या फल होगा? क्या महसूल लेने वाले भी ऐसा ही नहीं करते?
इस प्रकार के प्रेम की विशेषता परमेश्वर तथा मनुष्यों दोनों में होती है।
बाइबल की आज्ञा है कि लोग आपस में प्रेम रखें। बाइबल उन्हें आज्ञा देती है कि चाहें उन्हें जैसा भी क्यों न लगे वे एक निश्चित रीति से व्यवहार करें ।
व्यवस्थाविवरण 11:13,22,27-29 -
[13]और यदि तुम मेरी आज्ञाओं को जो आज मैं तुम्हें सुनाता हूं ध्यान से सुनकर, अपने सम्पूर्ण मन और सारे प्राण के साथ, अपने परमेश्वर यहोवा से प्रेम रखो और उसकी सेवा करते रहो,
[22]इसलिये यदि तुम इन सब आज्ञाओं के मानने में जो मैं तुम्हें सुनाता हूं पूरी चौकसी करके अपने परमेश्वर यहोवा से प्रेम रखो, और उसके सब मार्गों पर चलो, और उस से लिपटे रहो,
[27] अर्थात् यदि तुम अपने परमेश्वर यहोवा की इन आज्ञाओं को जो मैं आज तुम्हे सुनाता हूं मानो, तो तुम पर आशीष होगी,
[28]और यदि तुम अपने परमेश्वर यहोवा की आज्ञाओं को नहीं मानोगे, और जिस मार्ग की आज्ञा मैं आज सुनाता हूं उसे तजकर दूसरे देवताओं के पीछे हो लोगे जिन्हें तुम नहीं जानते हो, तो तुम पर शाप पड़ेगा।
[29]और जब तेरा परमेश्वर यहोवा तुझ को उस देश में पहुंचाए जिसके अधिकारी होने को तू जाने पर है, तब आशीष गरीज्जीम पर्वत पर से और शाप एबाल पर्वत पर से सुनाना।
यूहन्ना 15:16,17-
[16] तुमने मुझे नहीं चुना परन्तु मैंने तुम्हें चुना है और तुम्हें नियुक्त किया कि तुम जाकर फल लाओ और तुम्हारा फल बना रहे, कि तुम मेरे नाम से जो कुछ पिता से मांगो, वह तुम्हें दे।
[17] इन बातों की आज्ञा मैं तुम्हें इसलिये देता हूं, कि तुम एक दूसरे से प्रेम रखो।
इफिसियों 5:25- हे पतियों, अपनी अपनी पत्नी से प्रेम रखो, जैसा मसीह ने भी कलीसिया से प्रेम करके अपने आप को उसके लिये दे दिया।
तीतुस 2:4- ताकि वे जवान स्त्रियों को चितौनी देती रहें, कि अपने पतियों और बच्चों से प्रीति रखें।
1 यूहन्ना 4:20-21-
[20]यदि कोई कहे, कि मैं परमेश्वर से प्रेम रखता हूं; और अपने भाई से बैर रखे; तो वह झूठा है: क्योंकि जो अपने भाई से, जिसे उसने देखा है, प्रेम नहीं रखता, तो वह परमेश्वर से भी जिसे उस ने नहीं देखा, प्रेम नहीं रख सकता।
[21]और उस से हमें यह आज्ञा मिली है, कि जो कोई अपने परमेश्वर से प्रेम रखता है, वह अपने भाई से भी प्रेम रखे।
मसीही प्रेम का यह अर्थ नहीं कि कोई व्यक्ति अपने मन में दूसरे व्यक्ति के लिए प्रेम की भावना उपजाए, परन्तु यह है कि वह जैसा प्रेम की भावना से कार्य करना चाहिए, उसके अनुसार कार्य करना चाहिए।
लूका 10:27,29,37 –
[27] उसने उत्तर दिया, कि तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख; और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।
[29]परन्तु उसने अपने आपको धर्मी ठहराने की इच्छा से यीशु से पूछा, तो मेरा पड़ोसी कौन है?
[37] उसने कहा, “वही जिसने उस पर दया की।” यीशु ने उस से कहा, जा, तू भी ऐसा ही कर।
उसे ऐसा इसलिए करना चाहिए कि क्योंकि परमेश्वर का प्रेम उनके जीवन में राज्य करता है और चाहता है कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ही व्यक्ति अपना कार्य करे।
रोमियो 5:5 - और आशा से लज्ज़ा नहीं होती, क्योंकि पवित्र आत्मा जो हमें दिया गया है उसके द्वारा परमेश्वर का प्रेम हमारे मन में डाला गया है।
2 कुरिन्थियों 5:14 - क्योंकि मसीह का प्रेम हमें विवश कर देता है; इसलिये कि हम यह समझते हैं, कि जब एक सब के लिये मरा तो सब मर गए।
1यूहन्ना 4:19 - हम इसलिये प्रेम करते हैं, कि पहिले उस ने हम से प्रेम किया।
यह प्रभु यीशु मसीह में स्पष्ट देखा गया कि उसने अपने जीवन भर जरूरतमंदों, रोगियों और पीड़ित लोगों की सहायता की और अपनी मृत्यु के द्वारा असहाय पापियों का उद्धार किया । मनुष्य का उद्धार परमेश्वर के प्रेम में उत्पन्न होता है और इस प्रेम की पूर्ण अभिव्यक्ति हमें यीशु मसीह के क्रूस पर दिखाई देती है।(मत्ती14:14,मरकुस10:21, लूका7:13, यूहन्ना3:16,15:13,गला.2:20, इफि.2:4-7,5:25,1यूहन्ना4:9)
परमेश्वर के प्रेम के प्रतिपालन में हमारा यह कर्तव्य होना चाहिए कि -
1.हम एक दूसरे का सम्मान करें-
रोमियों 12:10 कहता है, “ भाईचारे के प्रेम से एक दूसरे के प्रति समर्पित रहो । अपने से अधिक एक दूसरे का आदर करो ।”
2.हम एक दूसरे की सेवा करें-
गलातियों 5:13-14 कहता है, “ प्रेम से एक दूसरे की सेवा करो ।“ सारी व्यवस्था का सार एक ही आज्ञा में है: अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।”
3.हम एक दूसरे पर दया करें -
इफिसियों 4:32 कहता है, “ एक दूसरे पर दया करो, और जैसे परमेश्वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो।“
4.हम एक दूसरे को प्रेम से मार्गदर्शन करें -
कुलुस्सियों 3:16 कहता है, “मसीह के वचन को तुम में अधिकाई से बसने दो, और सारे ज्ञान सहित एक दूसरे को सिखाओ, और चिताओ। हमें अपने जीवन में “एक दूसरे” के साथ परमेश्वर के प्रेम और सुधार को साझा करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
5.हम एक दूसरे का हौसला बढ़ाएं -
1 थिस्सलुनीकियों 5:11 कहता है, “इसलिये एक दूसरे को प्रोत्साहन दो, और एक दूसरे की उन्नति करो , जैसा तुम कर भी रहे हो।“
6.हम एक दूसरे का साथ न छोड़ें -
इब्रानियों 10:25, “हम एक दूसरे के साथ मिलना न छोड़ें , जैसा कि कितनों की आदत है, पर एक दूसरे को समझाएं – और ज्यों ज्यों उस दिन को निकट आते देखो, त्यों त्यों और भी अधिक यह किया करो।“ एक साथ आराधना करना एक ऐसा तरीका है जिससे हम अपने परिवार के साथ आध्यात्मिक रूप से जुड़ते हैं। साझा आध्यात्मिक अभ्यास गहरी अंतरंगता को आमंत्रित कर सकता है और आपके विवाह को मजबूत कर सकता है। अपने आध्यात्मिक विकास में एक-दूसरे को प्रोत्साहित करें, ताकि जैसे-जैसे आप ईश्वर के करीब आएंगे आप एक-दूसरे के करीब आएंगे।
7.हम एक दूसरे के लिये प्रार्थना किया करें-
याकूब 5:16 कहता है, “इसलिये आपस में एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लो, और एक दूसरे के लिये प्रार्थना करो, जिस से चंगे हो जाओ।“
8. हम एक दूसरे को प्रेम से पहचानें -
1 यूहन्ना 4:11 में लिखा है, “हे प्रियो, जब कि परमेश्वर ने हम से ऐसा प्रेम रखा, तो हमें भी आपस में प्रेम रखना चाहिए ।“
हमारे प्रति परमेश्वर के असीम प्रेम के प्रत्युत्तर में, हमें इस प्रेम को एक दूसरे के प्रति प्रदर्शित करने के लिए बुलाया गया है। अकेले यूहन्ना के सुसमाचार में यीशु ने चार बार कहा: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही एक दूसरे से प्रेम रखो (यूहन्ना 13:14; 13:34; 15:12; 15:17)। यीशु त्यागपूर्ण प्रेम का आदर्श था और उसने हमें अपने उदाहरण का अनुसरण करने के लिए बुलाया है।
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1यूहन्ना 3:12 - और कैन के समान न बनें, जो उस दुष्ट से था, और जिस ने अपने भाई को घात किया: और उसे किस कारण घात किया? इस कारण कि उसके काम बुरे थे, और उसके भाई के काम धर्म के थे।
कैन (Cain) का नाम, जिसका अर्थ है “स्मिथ”, उस क्रिया से मिलता-जुलता है जिसका अनुवाद “प्राप्त करना” है, लेकिन संभवतः इसका अर्थ “बनाना” भी है।
हाबिल का नाम “वाष्प” या “हवा के झोंके” से जुड़ा हो सकता है।
आदम और हव्वा के परिवार में कैन ज्येष्ठ पुत्र था। वह कृषक था। इसलिए कि मनुष्य को परमेश्वर के प्रति आभार प्रकट करना चाहिए कि वह सब अच्छी वस्तुओं का दाता है,कैन ने अपने खेत की उपज में से कुछ उत्पन्न फसल को परमेश्वर के लिए भेंट चढ़ा दिया। कैन का भाई हाबिल, इसलिए कि वह चरवाहा था उसने भी अपने रेवड़ में से एक भेड़ को परमेश्वर के लिए बलिदान चढ़ाया। हाबिल ने अपनी भेंट को सच्चे मन से चढ़ाया परन्तु कैन ने ऐसा नहीं किया; परिणामस्वरूप परमेश्वर ने हाबिल की भेंट तो ग्रहण की परन्तु कैन की भेंट को उसने ग्रहण नहीं किया (उत्प.4:1-5,इब्रा.11:4)।
इससे कैन के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई और वह क्रोधित हो गया। यहोवा ने कैन को समझाया कि यदि तू भला करे तो तुम्हारा भेंट भी ग्रहण की जायेगी। इसके लिए तुम्हें अपने बुरे मार्गों को बदलना और पापी व्यवहार को त्यागना होगा जो तुम्हारे जीवन को खराब कर रहे हैं (उत्प.4:5-7)। परन्तु कैन ने ऐसा करना न चाहा। वह नम्र नहीं बना और उसने इसका स्पष्ट प्रमाण अपने भाई की हत्या करके दिया (उत्प.4:8; 1यूहन्ना3:12)। दण्डस्वरूप परमेश्वर ने उसे एक उजाड़ स्थान में पहुंचा दिया। कैन दण्ड से तो डरता रहा परन्तु उसमें पश्चाताप का कोई भी चिह्न नहीं था। फिर भी परमेश्वर ने दया करके उसे मार डाले जाने से बचा लिया (उत्प.4-16)।
कैन ने परमेश्वर की आराधना करनेवालों से दूर जाकर अपने रहने का स्थान बना लिया। उसके वंशज पशु-पालन करते थे। वे तरह तरह की कला में निपुण थे। परन्तु वे नैतिकता में पिछड़ते चले गए और परमेश्वर से दूर हो गए (उत्प.4:17-24; रोमी1:20-28)।
लेकिन प्रभु यीशु ने कहा इस विधवा ने दिल की खराई से जो कुछ इसके पास था उसे चढ़ाया है. प्रभु हमारे मन को देखता है. हमारी भेंट को नहीं. (मरकुस 12:41-43)
एक बार प्रभु ने कहा, इसलिये यदि तू अपनी भेंट वेदी पर लाए, और वहां तू स्मरण करे, कि मेरे भाई के मन में मेरी ओर से कुछ विरोध है, तो अपनी भेंट वहीं वेदी के साम्हने छोड़ दे. और जाकर पहिले अपने भाई से मेल मिलाप कर; तब आकर अपनी भेंट चढ़ा. (मत्ती 5:23-24)
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1यूहन्ना 3:13 - हे भाइयों, यदि संसार तुम से बैर करता है तो अचम्भा न करना।
यह अचम्भा की बात नहीं है कि हम जो मसीह का अनुसरण करते हैं, तिरस्कृत और अस्वीकृत किए जाते हैं। हमें इस बात से आश्चर्यजनक नहीं होना चाहिए कि दुनिया हमसे नफरत करती है क्योंकि हम उनकी अधर्मी व्यवहार को नहीं अपनाते हैं। हमें यह याद रखना आवश्यक है कि संसार के इतिहास गवाह है कि परमेश्वर के नबियों, भविष्यवक्ताओं, प्रेरितों तथा सन्तों और वचन की सच्चाई का पालन करने वालों को अपमान किया गया, सताया गया, नफरत की गई और अस्वीकार किया गया – ठीक उसी तरह जैसे यीशु का अपमान किया गया, सताया गया, नफरत की गई, और यहां तक कि मार भी दिया गया था।
जो लोग हमसे घृणा करते हैं और हमें अस्वीकार करते हैं, वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह को अस्वीकार कर दिया है। उनके जीवन का संपूर्ण दर्शन परमेश्वर के प्रति विद्रोह है, क्योंकि कैन की तरह, उन्होंने स्वतंत्र रूप से सत्य के वचन को अस्वीकार करने और शैतान के अधिकार के अधीन रहने और पापी स्वभाव के गुलाम में रहने के विकल्प चुना है, जो कभी भी प्रभु को प्रसन्न नहीं कर सकता है। जैसे उन्होंने मसीह से बैर किया, वैसे ही वे हम से भी बैर करेंगे... इसलिये यदि संसार हम से बैर करे, तो हममें से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रति उनकी नफरत को बदलने लिए परमेश्वर से प्रार्थना करना चाहिए।
परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है कि कोई नाश हो, बल्कि यह है कि सभी को सत्य का ज्ञान हो। तो आइए हम अचम्भित न हों यदि संसार हमसे ईर्ष्या करती है। आइए अब हम उन लोगों के लिए प्रार्थना करें जो अपने पाप में खो गए हैं और हमारे परमेश्वर के विरोधी बन बैठे हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि वे यीशु के लिए अपना मन व हृदय खोल दें और उन्हें अपना मुक्तिदाता और मसीहा के रूप में स्वीकार करें।
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1यूहन्ना 3:14 - हम जानते हैं, कि हम मृत्यु से पार होकर जीवन में पहुंचे हैं; क्योंकि हम भाइयों से प्रेम रखते हैं: जो प्रेम नहीं रखता, वह मृत्यु की दशा में रहता है।
मृत्यु से पार होकर जीवन में प्रवेश –
बाइबल हमें शिक्षा देती है कि पाप के परिणामस्वरूप मनुष्य की मृत्यु होती है (उत्प.2:17,रोमियों 5:12)। परन्तु परमेश्वर नहीं चाहता कि मनुष्य की मृत्यु हो। मृत्यु, मनुष्य और परमेश्वर दोनों की शत्रु है (1कुरि.15:26, इब्रा2:15)।
जब आदम के जीवन में पाप ने प्रवेश किया तो उसने सब कुछ बदल दिया। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन पाप की निश्चितता से प्रभावित हो गया है (रोमियों 5:12-17) इसमें भौतिक और आत्मिक दोनों मृत्यु सम्मिलित हैं। इस सच्चाई को इस सत्य से प्रकट किया गया है कि मसीह का कार्य मनुष्य पर पड़नेवाले पाप के प्रभाव को बल देता है और अब आत्मिक जीवन के वरदान ले आता है(रोमियों 6:23) और अन्त में यह भौतिक मृत्यु पर विजय पा लेगा (1कुरि.15:21-22,44-45)।
बाइबल एक दुष्ट शासक का चित्रण मृत्यु और शैतान के लिए करती है। मृत्यु एक ऐसी दशा है जिसमें शैतान का राज्य है (इब्रा.2:15) मनुष्य पाप का दास है इसलिए वह इसकी शक्ति के अधीन है (रोमियों5:14)। वह स्वतंत्र नहीं कि निर्णय ले सकें कि वह मरेगा या नहीं। भौतिक रूप से वह मृत्यु के दण्ड के अधीन है और आत्मिक रूप से वह पहिले ही मरा हुआ है (इफि.2:1,5, कुलु.2:13, 1यूहन्ना3:14)। वह पाप के अधिकार में इतना अधिक दबा हुआ है कि पाप के प्रति उसकी प्रवृत्ति भी मृत्यु कहलाती है (रोमियों 7:24,8:6,10)। वह पाप ही नहीं है जिसका परिणाम मृत्यु न हो क्योंकि पाप का परिणाम मृत्यु है (रोमियों 6:16,21, 7:5,13, याकूब 1:15,)
मसीह के उद्धारक कार्य का अर्थ है कि अब विश्वासी लोगों को मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं है। वे जानते हैं कि एक दिन यह नष्ट कर दी जाएगी (रोमियों 6:9, 1कुरि.15:26,54-57,प्रका.2:11,20:6, 21:4)। यद्यपि वे अब भी मृत्यु के क्षेत्र में रहते हैं फिर भी मसीह की मृत्यु के कारण वे मृत्यु से पार होकर जीवन में प्रवेश कर गए हैं। अब वे पाप और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र हो गये है (यूहन्ना5:24, रोमियों 8:2,2तीमु1:10,1यूहन्ना3:14)
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1यूहन्ना 3:15- जो कोई अपने भाई से बैर रखता है, वह हत्यारा है; और तुम जानते हो, कि किसी हत्यारे में अनन्त जीवन नहीं रहता।
1Jn3:15- हत्यारा- घृणा से भरे एक हृदय में हत्या करने की तीव्र क्षमता होती है।
•अपने भाई से घृणा करना केवल मृत्यु का अनुभव नहीं है; यह भी हत्या का एक अनुभव है. जो व्यक्ति अपने ईसाई भाई से नफरत करता है वह वास्तव में कैन से अलग नहीं है (पद12), भले ही वह अपने भाई को शारीरिक रूप से मारने का प्रत्यक्ष कार्य नहीं कर सकता है। नफरत की भावना यह है कि हम अपने भाई से “ छुटकारा पाना “ चाहते हैं और अगर वह मर भी जाए तो हमें इसकी कोई परवाह नहीं है। लेकिन ये तो एक हत्यारे की आत्मा है।
मत्ती 5:21-22-
[21]तुम सुन चुके हो, कि पूर्वकाल के लोगों से कहा गया था कि हत्या न करना, और जो कोई हत्या करेगा वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा।
[22]परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा: और जो कोई अपने भाई को निकम्मा कहेगा वह महासभा में दण्ड के योग्य होगा; और जो कोई कहे “अरे मूर्ख” वह नरक की आग के दण्ड के योग्य होगा।
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1 यूहन्ना 3:16 - हमने प्रेम इसी से जाना, कि उस ने हमारे लिये अपने प्राण दे दिए; और हमें भी भाइयों के लिये प्राण देना चाहिए।
यह प्रेम ही था जिसके कारण सर्वशक्तिमान ईश्वर ने अपने एकमात्र पुत्र को मानवता की संपूर्ण जाति के लिए पाप-बलि बनने के लिए दुनिया में भेजा और यह प्रेम ही था जिसके कारण प्रभु यीशु मसीह ने हमारे लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। यह प्रेम ही था जिसके कारण प्रभु यीशु को स्वेच्छा से क्रूस पर चढ़ाया गया, ताकि जो लोग उस पर विश्वास करते हैं वे नष्ट न हों बल्कि उन्हें अनंत जीवन मिले।
प्रभु यीशु ने प्रेम का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किया जब उन्होंने मित्रों और शत्रुओं दोनों के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। कलवरी के क्रूस पर प्रेम अपने उच्चतम स्तर पर प्रकट हुआ है और उनके बच्चों के रूप में हमें भी अपने भाइयों के लिए उसी तरह अपना जीवन अर्पित करना चाहिए।
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1 यूहन्ना 3:17 - पर जिस किसी के पास संसार की संपत्ति हो और वह अपने भाई को कंगाल देख कर उस पर तरस न खाना चाहे, तो उस में परमेश्वर का प्रेम क्योंकर बना रह सकता है?
यदि आप आर्थिक रूप से समृद्ध है। जब आप एक ऐसे भाई को देखते हैं, जो तंगहाली की स्थिति में है। शायद किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण से वह अपने काम पर नहीं जा सक पाया है और शायद उसके घर में भोजन वस्तु (राशन) आदि समाप्त हो गई हैं।
1. यदि आप में उनकी मदद करने की क्षमता है और आप ऐसा करने से इनकार करते हैं, तो आप कैसे कह सकते हैं कि आप उनसे प्यार करते हैं?
2. आप पूरे दिन इस बारे में बातें करते हैं कि आप उस व्यक्ति से कितना प्यार करते हैं, लेकिन केवल बातचीत से तो उनके मेज पर खाना नहीं आ सकता।
व्यवस्थाविवरण 15:7-11
[7]जो देश तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे देता है उसके किसी फाटक के भीतर यदि तेरे भाइयों में से कोई तेरे पास द्ररिद्र हो, तो अपने उस दरिद्र भाई के लिये न तो अपना हृदय कठोर करना, और न अपनी मुट्ठी कड़ी करना;
[8]जिस वस्तु की घटी उसको हो, उसका जितना प्रयोजन हो उतना अवश्य अपना हाथ ढीला करके उसको उधार देना।
[9]सचेत रह कि तेरे मन में ऐसी अधम चिन्ता न समाए, कि सातवां वर्ष जो छुटकारे का वर्ष है वह निकट है, और अपनी दृष्टि तू अपने उस दरिद्र भाई की ओर से क्रूर करके उसे कुछ न दे, और वह तेरे विरुद्ध यहोवा की दुहाई दे, तो यह तेरे लिये पाप ठहरेगा।
[10]तू उसको अवश्य देना, और उसे देते समय तेरे मन को बुरा न लगे; क्योकि इसी बात के कारण तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे सब कामों में जिन में तू अपना हाथ लगाएगा तुझे आशीष देगा।
[11]तेरे देश में दरिद्र तो सदा पाए जाएंगे, इसलिये मैं तुझे यह आज्ञा देता हूं कि तू अपने देश में अपने दीन-दरिद्र भाइयों को अपना हाथ ढीला करके अवश्य दान देना॥
नीतिवचन 19:17 -जो कंगाल पर अनुग्रह करता है, वह यहोवा को उधार देता है, और वह अपने इस काम का प्रतिफल पाएगा।
1Jn3:16-17 का आशय - एक विश्वासी से आत्मत्याग सहित प्रेम की अपेक्षा की जाती है। यद्यपि बहुतों को उनके जीवनों का बलिदान करने के लिए नहीं बुलाया गया है,परन्तु सभी लोग अपनी समस्त संपत्ति को बलिदान स्वरुप समर्पित कर सकते हैं।
संसार की सम्पत्ति = जीवन की भौतिक आवश्यकताएं।
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1 यूहन्ना 3:18 - हे बालकों, हम वचन और जीभ ही से नहीं, पर काम और सत्य के द्वारा भी प्रेम करें।
लेकिन कर्म में "कार्य" में प्रेम करना "वचन" में प्रेम करने के विरुद्ध है। कुछ लोग केवल बातें करते हैं और कोई कार्य नहीं करते। प्रेम के लिए ईश्वर का मानक कार्य में प्रकट होता है। सच्चे प्यार में विश्वास रखने वाला व्यक्ति दूसरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ न कुछ करता है। व्यवहार में प्रेम करने का अर्थ है कि प्रेमी किसी और की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कुछ करता है। प्यार शब्दों से कहीं बढ़कर है; यह क्रिया है, और सच में प्रेम भावना से बढ़कर है; इसमें कार्रवाई की वास्तविकता शामिल है। प्यार सच्चा प्यार करता है, पवित्र बातें मुंह से निकालना प्रेम नहीं है। सच्चा प्यार दूसरों की सेवा में ही प्रकट होता है। साथी ईसाइयों के लिए प्यार हमेशा सच्चाई से उत्पन्न होता है। जैसा कि याकूब ने उल्लेख किया है, कुछ ईसाई सच्चाई से प्रेम नहीं करते हैं।
याकूब 2:15-18-
[15]यदि कोई भाई या बहिन नगें उघाड़े हों, और उन्हें प्रति दिन भोजन की घटी हो।
[16]और तुम में से कोई उन से कहे, कुशल से जाओ, तुम गरम रहो और तृप्त रहो; पर जो वस्तुएं देह के लिये आवश्यक हैं वह उन्हें न दे, तो क्या लाभ?
[17]वैसे ही विश्वास भी, यदि कर्म सहित न हो तो अपने स्वभाव में मरा हुआ है।
[18]वरन कोई कह सकता है कि तुझे विश्वास है, और मैं कर्म करता हूं: तू अपना विश्वास मुझे कर्म बिना तो दिखा; और मैं अपना विश्वास अपने कर्मों के द्वारा तुझे दिखाऊंगा।
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1 यूहन्ना 3:19 - इसी से हम जानेंगे, कि हम सत्य के हैं; और जिस बात में हमारा मन हमें दोष देगा, उसके विषय में हम उसके साम्हने अपने अपने मन को ढाढ़स दे सकेंगे।
प्रेम परमेश्वर का है, और आत्मा का फल प्रेम है। यह तब होता है जब हम आज्ञाकारी रूप से मसीह में बने रहते हैं, जिस पर हम भोजन करते हैं और जिसके माध्यम से हम जीवन और भक्ति के लिए आवश्यक सभी चीजें प्राप्त करते हैं, तो हम जान लेंगे, बिना किसी संदेह के, हम आत्मा और सच्चाई में चल रहे हैं – क्योंकि जैसा हमारा दिल उसके सामने पारदर्शी है वैसा ही हमारा आंतरिक हृदय ईश्वर प्रदत्त विवेक हमारी निंदा न करे।
प्रेम प्राथमिक विषय है जो इस संपूर्ण परिच्छेद में खुद को पिरोता है, और मसीह जैसा प्रेम एक ईसाई की पहचान है, क्योंकि हम ईश्वर की संतान हैं। हम उसकी आत्मा से पैदा हुए हैं, उसके खून में धोए गए हैं, और जैसे-जैसे हम उसके अनुग्रह और ज्ञान में बढ़ते हैं, हम दिन-ब-दिन प्यारे प्रभु यीशु की सुंदर छवि और समानता में परिवर्तित होते जा रहे हैं।
प्रेम व्यावहारिक धार्मिकता में प्रकट होता है और सत्य और आशा, जीवन और प्रकाश से निकटता से जुड़ा हुआ है। प्रेम की तुलना पाप और विद्रोह, धोखे और विनाश की अंधेरी और घातक बुराइयों से की जाती है – जो हमारी आत्मा के दुश्मन का कड़वा उत्पाद है और उन लोगों की पहचान है जो अराजकता का अभ्यास करते हैं।
प्रेम, आशा, आज्ञाकारिता और सच्चाई मसीह के समान गुण हैं जो हमें ईश्वर की संतान के रूप में पहचानते हैं। विचार में, विवेक में, वचन में और कर्म में प्रेम का कार्य करना, विशिष्ट चिह्न हैं "जिसके द्वारा हम जानते हैं कि हम सत्य हैं," और जो हमें निश्चितता देते हैं कि हम अपने परमेश्वर और उद्धारकर्ता का सम्मान कर रहे हैं।
रोमियो 7:14-24-
[14]क्योंकि हम जानते हैं कि व्यवस्था तो आत्मिक है, परन्तु मैं शरीरिक और पाप के हाथ बिका हुआ हूं।
[15]और जो मैं करता हूं, उस को नहीं जानता, क्योंकि जो मैं चाहता हूं, वह नहीं किया करता, परन्तु जिस से मुझे घृणा आती है, वही करता हूं।
[16]और यदि, जो मैं नहीं चाहता वही करता हूं, तो मैं मान लेता हूं, कि व्यवस्था भली है।
[17]तो ऐसी दशा में उसका करने वाला मैं नहीं, वरन पाप है, जो मुझ में बसा हुआ है।
[18]क्योंकि मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते।
[19]क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता वही किया करता हूं।
[20]परन्तु यदि मैं वही करता हूं, जिस की इच्छा नहीं करता, तो उसका करने वाला मैं न रहा, परन्तु पाप जो मुझ में बसा हुआ है।
[21]सो मैं यह व्यवस्था पाता हूं, कि जब भलाई करने की इच्छा करता हूं, तो बुराई मेरे पास आती है।
[22]क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूं।
[23]परन्तु मुझे अपने अंगो में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है।
[24]मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?
प्रिय, यदि हमारा हृदय हमारी निंदा नहीं करता, तो हमें परमेश्वर पर भरोसा है।
यूहन्ना, उन्हें परमेश्वर के प्रति विश्वास के उस स्थान पर लाना चाह रहा है। यही कारण है कि वह हमसे कहते हैं कि यदि हमारा हृदय हमारी निंदा करता है, तो ईश्वर हमारे हृदय से भी बड़ा है।
यह आश्चर्यजनक है कि शैतान हमें ईश्वर की खोज करने से रोकने के लिए अक्सर हमारी असफलताओं और हमारी कमजोरियों का उपयोग करता है।
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1 यूहन्ना 3:20-21-
[20]क्योंकि परमेश्वर हमारे मन से बड़ा है; और सब कुछ जानता है।
[21]हे प्रियो, यदि हमारा मन हमें दोष न दे, तो हमें परमेश्वर के साम्हने हियाव होता है।
1Jn3:20- परमेश्वर हमारे मन से बड़ा है – हम अपने जीवनों को जांचने में बहुत मृदुल या बहुत सख्त हो सकते हैं; इसलिए यूहन्ना के ये वचन सान्त्वना के वचन है – सर्वज्ञानी परमेश्वर,सर्व-प्रेमी भी है।
1.अगर हमारा दिल हमारी निंदा करता है।“
एक ईसाई के रूप में हमें निंदा में नहीं रहना चाहिए।
1. यीशु ने कहा कि वह जगत में जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं आया, परन्तु इसलिये कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए।
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1 यूहन्ना 3:22 - और जो कुछ हम मांगते हैं, वह हमें उस से मिलता है; क्योंकि हम उस की आज्ञाओं को मानते हैं; और जो उसे भाता है वही करते हैं।
यह वचन हमें आश्वासन देता है कि हम जो भी मांगेंगे वह हमें मिलेगा, जब हम विनम्रतापूर्वक वह मांगते हैं जो परमेश्वर के वचन के साथ पूर्ण संरेखण में है और सम्मान के लिए पवित्र आत्मा की शक्ति में परमेश्वर की इच्छा के अनुसार प्रार्थना करते हैं तो उसके नाम की महिमा होती है।
जब हमारा हृदय परमेश्वर के वचन के साथ पंक्तिबद्ध हो जाता है और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो जाता है, तो हम वास्तव में वह प्राप्त करेंगे जो हम मांगते हैं, क्योंकि हमारी याचिका एक सही और ईश्वरीय अनुरोध होगी जो उनकी दृष्टि में प्रसन्न होगी। परमेश्वर के वचन और इच्छा के अनुरूप होना, यह सुनिश्चित करता है कि जो आस्तिक आत्मा और सत्य पर चल रहा है, वह पवित्र आत्मा के नेतृत्व में प्रार्थना करेगा – और उनकी प्रार्थना का वास्तव में उत्तर दिया जाएगा
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1 यूहन्ना 3:23 - और उस की आज्ञा यह है कि हम उसके पुत्र यीशु मसीह के नाम पर विश्वास करें और जैसा उस ने हमें आज्ञा दी है उसी के अनुसार आपस में प्रेम रखें।
1Jn3:23- मसीह जो कुछ है उस सब पर विश्वास करें। उध्दार के लिए नहीं, वरन् उत्तर प्राप्त प्रार्थना के लिए। आपस में प्रेम रखने से प्रार्थना स्व- केन्द्रित नहीं होती ।
यह उसकी आज्ञा है,” यूहन्ना इस वचन में लिखते हैं, कि
1. हम उसके पुत्र यीशु मसीह के नाम पर विश्वास करते हैं, और
2. एक दूसरे से प्यार करते हैं, जैसा उसने हमें आदेश दिया है।
और यूहन्ना आगे कहता है: “ वह जो उसकी आज्ञाओं को मानता है (प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करके और उसके प्रेम के अनुसार प्रेम करके) उसमें बना रहता है , और वह उसमें बना रहता है, और हम इस से जानते हैं कि वह हम में बना रहता है।“ उस आत्मा के द्वारा जो उस ने हमें दिया है।”
1.हमें विश्वास के माध्यम से अनुग्रह द्वारा बचाया जाना है और
2.फिर हमें मसीह में विश्वास के माध्यम से अनुग्रह द्वारा जीना है (उसमें बने रहें और वह हम में है) ताकि हम मसीह की तरह प्रेम कर सकें और इस प्रकार उनकी आज्ञाओं को पूरा कर सकें।
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1 यूहन्ना 3:24 – और जो उस की आज्ञाओं को मानता है, वह उस में, और वह उन में बना रहता है: और इसी से, अर्थात् जो उस आत्मा से जो उस ने हमें दिया है, हम जानते हैं, कि वह हम में बना रहता है।
1Jn3:24- बना रहता है - यूहन्ना 15:1-10. में प्रयुक्त शब्दांश के समान। मसीह में बने रहना (जीना) उसकी आज्ञाओं का पालन करने की मांग करता है।
जिस प्रकार मसीह ने हमसे प्रेम किया, उसी प्रकार प्रेम करने की यह उत्कृष्ट आज्ञा मसीह के शरीर में रहने वालों को दी गई है, क्योंकि केवल मसीह पर विश्वास करके ही हम उसके साथ एकता में स्थापित होते हैं, और केवल जब हम उसमें और वह हम में रहते हैं, तभी हम उसकी उत्कृष्टता को पूरा कर सकते हैं। यूहन्ना रचित सुसमाचार में कलीसियाओं को निर्देश है कि “यह मेरी इच्छा है कि तुम मुझ पर विश्वास करो – यह मेरी आज्ञा है, कि तुम एक दूसरे से प्रेम करो, जैसा मैंने तुमसे प्रेम किया है।“
यह मसीह में बने रहने से है कि हम उसके प्रेम की आज्ञाओं का पालन करने में सक्षम हो जाते हैं जैसे उसने प्रेम किया। हम कभी भी अपनी ताकत से या अपने मानवीय प्रयास से प्रेम नहीं कर सकते। हमें मसीह में रहना, उस पर निर्भर रहना, अनुग्रह में बढ़ना और विश्वास में परिपक्व होना सीखना चाहिए। प्रभु यीशु मसीह ने हमारे लिए एक सहायक अर्थात् सत्य का आत्मा (पवित्र आत्मा) का वरदान दिया है,जो सदैव ही हमारे साथ है। जिसके अगवाई में हमें अपने जीवन के पथ पर आगे बढ़ते चले जाना है कि हम अनन्त जीवन के राज्य में प्रवेश पाने के योग्य बन सकें। आमीन।
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